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जब वह स्वामी श्रद्धानन्द बन गये

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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भारत एक ऐसा देश जहाँ की मिट्टी की हर परत में बलिदान की एक परत छुपी हुई है, किसी पृष्ठ पर सामाजिक कुरीतियों से उपजे वेदना का दर्द अंकित है, तो कहीं उन महापुरुषों की वाणी और कार्य छिपे हुए हैं  जो कि इस राष्ट्र को महान बनाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर गये. क्या आज यह अध्ययन का विषय नहीं है कि अपना घर, अपना परिवार यहाँ तक कि अपने प्राण भी इस देश धर्म और समाज के लिए क्यों बलिदान किये ? ताकि अध्ययन के बाद लोगों को स्वयं के मनुष्य होने का अर्थ समझ आ सके. यूँ तो भारत को सैंकड़ो वर्षों के लम्बे दर्दनाक संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली थी. ये संघर्ष केवल विदेशी ब्रिटिश शासन के ही खिलाफ नहीं था बल्कि सदियों से चली आ रही सामाजिक बुराईयों जैसे छूआछूत-जातिवाद आदि के खिलाफ भी था.

लेकिन इस आजादी से पहले 23 दिसम्बर 1926 को इस महान भारत ने अपना एक सपूत खोया था जो उसकी सामाजिक राजनितिक और धार्मिक आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था. ऐसी अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से भला कौन सुपरिचित नहीं होगा ! मुन्शीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बने इस महापुरुष का मर्मस्पर्शी जीवन पढ़कर कठोर हृदय मानव की पलकें भी नम हो जायें. स्वामी जी का जन्म पंजाब राज्य के जालंधर जिले के तलवन गाँव में  1856 में हुआ था. बचपन में अधिक लाड-प्यार में स्वतंत्रता मिली, नास्तिकता के विचारों ने उस समय आ घेरा, जब पूजार्चना के लिए पहले रीवा की महारानी को मन्दिर में प्रवेश दिये जाते देखा. इस घटना से भक्तिपूर्ण हृदय को आघात हुआ भगवान् के दरबार में भेदभाव देखकर नास्तिक बनकर लौटे.

पिताजी के तबादले के बाद मुन्शीराम बरेली आ गये. 1879 में महर्षि दयानन्द बरेली आये. उनकी सभा का प्रबन्ध भार इनके पिताजी पर ही था. पहले दिन के व्याख्यान से प्रभावित हो पिता ने नास्तिक पुत्र के सुधार की आशा से पुत्र को स्वामी दयानन्द जी के प्रवचन सुनने के लिए प्रेरित किया. बेमन से वहां चले तो गये, वहाँ जाने पर ‘‘उस आदित्य मूर्ति” को देखकर कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई. परन्तु जब पादरी टी.जे. स्काट और अन्य यूरोपियनों को उत्सुकता से बैठे देखा, तो श्रद्धा और भी बढ़ी. अभी भाषण 10 मिनट का भी नहीं सुना था कि मन में विचार किया. यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए ऐसी युक्ति-युक्त बातें करता है कि विद्वान् भी दंग रह जायें. उपदेश सुनकर आत्मिक शान्ति अनुभव हुई. नास्तिकता की रस्सी ढ़ीली हुई. इसका प्रभाव ये रहा कि आपने वकालत करते हुए कभी झूठ का आश्रय नहीं लिया.

अब मुन्शीराम जी पूर्ण रूप से महर्षि के प्रति समर्पित होकर देश और आर्यसमाज के काम में जुट गये. तन्मय होकर महर्षि के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते, प्रवचन करते और आवश्यकता पड़ने पर शास्त्रार्थ भी करते. सन् 1888 में धमकियों के बावजूद भी पटियाला रियासत में कई बार धर्म प्रचार के लिए गए. श्रद्धानन्द जी की बड़ी पुत्री वेदकुमारी ईसाइयों के विद्यालय में पढने जाती थी. 19 अक्टूबर 1888 के दिन जब कचहरी से आए तो वेदकुमारी दौड़ी आई और गीत सुनाने लगी- “इकबार ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगो मोल. ईसा मेरा राम रसिया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया.’’ पूछने पर लड़की ने बताया कि आर्य जाति की पुत्रियों को अपने शास्त्रों की निन्दा सिखाई जाती है. उसी दिन मुन्शीराम ने निश्चय किया कि अपना कन्या विद्यालय अवश्य होना चाहिए. और जालन्धर में भारत के सबसे पहले आर्य कन्या विद्यालय की नींव रख दी.

सत्यार्थ प्रकाश में लिखी पठन-पाठन विधि को साकार रूप देने के लिए श्रद्धानन्द जी ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली शुरु करने के लिए गुरुकुल खोलने का अपना निश्चय आर्य प्रतिनिधि सभा जालन्धर, लाहौर के सामने रखा. तो आवाज आई-‘‘कहाँ से आएगा गुरुकुल के लिए पैसा ?’’ यह सुनकर उत्साह का धनी स्वामी श्रद्धानन्द बिजली की भाँति खड़े हुए  और बादल की भांति गरजते हुए बोले ‘‘ जब तक गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपये इकट्ठे नहीं कर लूंगा. घर में पैर नहीं रखूंगा.’’ यह प्रतिज्ञा करके अनोखा फकीर घर से निकल पड़ा. देश में अकाल पड़ा हुआ था फिर भी लखनऊ से पेशावर और मद्रास तक का दौरा करके लोगों को प्रेरित किया और 6 मास में ही 40 हजार रुपया इकट्ठा हो गया और लाहौर में इनका अभिनन्दन हुआ .

जन-मन को पवित्र करने वाली गंगा के तट पर हिमालय की गोद में दानवीर मुन्शी अमन सिंह ने अपने गांव काँगड़ी में 700 बीघा जमीन गुरुकुल के लिए दान दे दी. सन् 1900 ई. में गुरुकुल घास-फूस की झोपड़ियों से आरम्भ हुआ. 2 मार्च 1902 में गुरुकुल की विधिवत् स्थापना हुई. सर्वप्रथम अपने पुत्र-पुत्रियों को शिष्य बनाया और स्वयं आचार्य बन गये. अपने पुस्तकालय को भी गुरुकुल को भेंट कर दिया. गुरुकुल ने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली. विरोधियों ने प्रचार किया कि गुरुकुल में बम बनते हैं. अंग्रेजी सरकार आतंकित हो गई. इसकी गूंज इग्लैण्ड तक भी होने लगी. ब्रिटिश सरकार ने अपने अनेक अधिकारी गुरुकुल में भेजे. परन्तु फिर भी सन्देह बना रहा. गुरुकुल में ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, विश्वास, स्वाभिमान, नैतिकता तथा देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा जाता था. अन्ध-विश्वास, जात-पात तथा अनेक सामाजिक कुरीतियों को हटाने में गुरुकुल ने अहम् भूमिका अदा की. गुरुकुल में बड़े-बडे़ अंग्रेज अधिकारी महात्मा जी के गुरुकुल को देखने आया करते थे.

अपना सर्वस्व गुरुकुल को प्रदान कर देश के कार्यों की ओर मुख कर लिया. 30 मार्च 1919 में रौलट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह शुरु हुए. दिल्ली में सांयकाल के समय बीस पच्चीस हजार की अपार भीड़ एक कतार में ’भारत माता की जय’ के नारे लगाती हुई घंटाघर की और स्वामी जी के नेतृत्व में चल पड़ी. अचानक कम्पनी बाग के गोरखा फौज के किसी सैनिक ने गोली चला दी जनता क्रोधित हो गई. लोगों को वहीं खडे़ रहने का आदेश देकर स्वामी जी आगे जा खडे़ हुए और धीर गम्भीर वाणी में पूछा- ‘‘तुमने गोली क्यों चलाई ?’’

सैनिकों ने बन्दुकों की संगीने आगे बढ़ाते हुए कहा- ‘हट जाओ नहीं तो हम तुम्हें छेद देंगे।’’ स्वामी जी एक कदम और आगे बढ़ गए. अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी. स्वामी जी शेर की भांति गरजते हुए बोले- ‘‘मेरी छाती खुली है, हिम्मत है तो चलाओ गोली.’’ अंग्रेज अधिकारी के आदेश से सैनिकों ने अपनी संगीने झुका ली. जलूस फिर चल पड़ा.

इस घटना के बाद सब और उत्साह का वातावरण बना. 4 अप्रैल को दोपहर बाद मौलाना अब्दुला चूड़ी वाले ने ऊँची आवाज में कहा स्वामी श्रद्धानन्द की तकरीर (भाषण) होनी चाहिए. कुछ नौजवान स्वामी जी को उनके नया बाजार स्थित मकान से ले आए. स्वामी जी मस्जिद की वेदी पर खडे़ हुए. उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र “त्वं हि नः पिता वसो” से अपना भाषण प्रारम्भ किया. भारत ही नहीं इस्लाम के इतिहास में यह प्रथम घटना थी कि किसी गैर मुस्लिम ने मस्जिद के मिम्बर से भाषण किया हो.

उसी समय काँग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ. इसकी अध्यक्षता स्वामी जी ने की. बाद में कांग्रेस से मतभेद होने के कारण स्वामी जी ने उसे छोड़ दिया. हिन्दू-संगठन तथा हिन्दू महासभा में काम करने लगे. स्वामी श्रद्धानन्द जी ने शुद्धि कार्य प्रारम्भ किया. जब मौलाना मौहम्मद ने भारत के अछूतों की हिन्दू-मुसलमानों में बराबर बाँटने का प्रस्ताव रखा तो स्वामी जी अपने भाईयों को बचाने के लिए तैयार हुए. इसके बाद शुद्धि सभाएं शुरु हो गई. दलितों को जनेऊ पहनाएं गए, धर्मान्तरित हुए लोगों को पुन: उनके मूल धर्म में लाया जाने लगा. इससे मुस्लिम नेता नाराज हो गए. स्वामी जी के पास रोजाना धमकी भरे पत्र आने लगे. और स्वामी जी की हत्या का षड्यन्त्र रचकर 23 दिसम्बर, 1926 को मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी की गोली मारकर हत्या कर दी. 25 दिसम्बर शाम के वक्त यमुना के किनारे जनता अपने नेता के भौतिक शरीर को अग्नि की पवित्र ज्वालाओं को भेंट कर खाली हाथ लौट आई.

किसी शायर ने कहा है कि ऐसा क्यूं है कि मशाल सारे चुप हैं, वतन परस्तों की कतारे चुप हैं. अँधेरे से जंग कब तक झोपड़े करेंगे, अभी भी महलों की दीवारे चुप हैं.

लेख-राजीव चौधरी

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