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क्या आस्था की परिभाषा सिर्फ मूर्खता बनकर रह गयी?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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उज्जैन में 18 दिसम्बर की बीती रात चक्रतीर्थ शमशान घाट पर एक विशेष तांत्रिक अनुष्ठान हुआ। अमावस्या की रात भैरवनाथ मंदिर पर तांत्रिक बम-बमनाथ ने शराब से महायज्ञ किया। इस महायज्ञ में हजार लीटर देशी-विदेशी शराब में चढ़ाई गई। इस बेहूदे प्रदर्शन को देखने लिए भीड़ इकट्ठी हुई और कमाल देखिये इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ। विरोध क्यों होगा? यह सब सदियों पुरानी परम्परा के नाम पर हुआ! यह परम्परावादी देश है, या कहो रूढ़िवादी देश है। यहां सिर्फ मूर्खता होनी चाहिए यदि मुर्खता और ढ़ोंग पुराना है तो क्या कहने। ढ़ोंग जितना पुराना उतनी ज्यादा आस्था है शायद अब धर्म की व्याख्या यही शेष रह गयी है।

महायज्ञ में भारी संख्या में भीड़ उपस्थित थी। हालाँकि यह भीड़ भारत देश के सम्बन्ध में स्वभाविक है क्योंकि जहाँ पागलपन होगा वहां भीड़ जरूर उपस्थित होगी। भला ऐसा मौका क्यों चूकना! अजीब कर्मकांड देखने की आकांक्षा तो इन्सान के अन्दर बड़ी प्रबल होती ही है। कोई और देश होता, तो इन कथित तांत्रिकां, बाबाओं को पकड़ कर पागलखाने में छोड़ देता लेकिन यह भारत है अधिकांश आबादी अभी भी परम्पराओं में जी रही है। सबका जीवन अतीत में है। कहते हैं अपनी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण रखने में कोई नुकसान नहीं है पर नुकसान तब होता है जब लोग चमत्कारी बाबाओं के ढ़ोंग, दकियानूसी परम्पराओं के चक्कर में पड़ते हैं। इससे सिर्फ एक हानि जो सबसे बड़ी होती है वह होती है धर्म की हानि।

कहा जा रहा है विश्व शांति और जनकल्याण के लिए यह अनुष्ठान करने के लिए यह महायज्ञ आयोजित किया गया। कितना अजीब है सब कुछ शांति के लिए सुरा यज्ञ? यदि शराब से शांति होती है तो क्यों न हर गली हर मोहल्ले यहां तक कि देश की सीमाओं पर भी यह शांति के केंद्र खोल दिए जाये? आर्य समाज से जुड़े होने के कारण हम रूढ़िवादी नहीं हैं, ढ़ोंगी परम्परावादी नहीं है। हम रूढ़ि-विरोधी, ढ़ोंग विरोधी हैं, इन कथित परम्पराओं के विरोधी हैं। हम अतीत के अंधविश्वासां के विरोधी हैं। हमारा साथ कौन दे? हमारा विरोध स्वभाविक है पर हम इसे स्वीकार करते हैं कि चलो हमारे कारण कुछ चहल-पहल तो हुई किसी को तो आत्मचिंतन करने का मौका मिला, इस भीड़ से कोई एक तो निकला जिसने यह कहा कि यह ढ़ोंग धर्म नहीं है। कुछ तो आंधी उठी। सदियों की अंधी ठहरी मानसिकताओं में कुछ तो हलचल हुई किसी को तो जीवन का बोध हुआ। किसी ने तो हमारे कारण सच्चे परमात्मा को जानने का आनन्द लिया।

जब मैंने उज्जैन की इस खबर को पढ़ा तो मेरे मन में एक पल को निराशा घर कर गयी पर एक दो लोगों से चर्चा की उन्होंने कहा इसे आस्था के रूप में भी देख सकते हैं? पर क्या आस्था की परिभाषा सिर्फ मूर्खता बनकर रह गयी? हम पाखण्ड के विरोधी हैं और दावे से कह सकते हैं जो जरा भी जागरूक नहीं हैं तो भारतीय कैसे हो सकता है? फिर किस गर्व से वह खुद को हिन्दू कह सकता है? मगर आज धर्म अंधी श्रधाओं की गलियों में खो गया, अंधकार ने आस्था को धर्म बनकर गटक लिया गया। सब कुछ हासियें पर जा रहा है क्या लोग उतना भी नहीं बचा पाएंगे जितना मूल्यवान है? हमसे केवल वे ही लोग खुश हो सकते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिभा बची है, जिनके पास थोड़ी बौद्धिक  क्षमता बची है, जिनके पास थोड़ा आत्मबल है, थोड़ा आत्मगौरव है, जो थोड़े आत्मवान हैं। जो इस महान वैदिक धर्म को बचा लेने का साहस रखते हैं। उनके अतिरिक्त, हमारे साथ भीड़ नहीं चल सकती है. क्योंकि हमारे पास अंधी पागल आस्थाओं का डमरू नहीं है।

हम ज्यादा आंकड़ें प्रस्तुत नहीं करते पर कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि भारत के कई बड़े मंदिरों में शराब के रूप में प्रसाद वितरित नहीं की जाती हैं? दरअसल ये शराब नहीं बल्कि एक महान पागलपन बांटा जा रहा है, एक सामान्य इन्सान की सोच को जकड़ा जा रहा है भय से अन्धविश्वास खड़ा कर आसानी से इन्हें धर्म का चोला पहना दिया गया। बड़ा दुःख होता है यह देखकर कि इस बौद्धिक दुनिया में देश की राजधानी के बीचो-बीच पुराना किला के पार स्थित ‘प्राचीन भैरों मंदिर’ देवता के प्रसाद में लोकल और इंटरनेशनल लेवल तक की शराब चढ़ाई जाती है। मंदिर के आसपास इसी वजह से तमाम भिखारी खाली गिलास लिए भटकते नजर आते रहते हैं। प्रसाद का सेवन कर चुके अधिकतर भिखारी पूरी तरह से नशे में होते हैं। नशे में धुत्त भिखारियों की लाइन में आपको बच्चों सहित हर उम्र के लोग नजर आ जाएंगे। लोगों के ज्यादा नशे में होने की वजह से कई बार यह लोग गम्भीर अपराध करने से भी नहीं चूकते। पर क्या कहें, किसे कहे? मंदिरों में जाकर वोट मांगने वाले नेताओं को? धर्म के नाम पर बाहर शराबी पियक्कड़ बैठे है अन्दर एक मूर्ति पियक्कड़ जिसे जितना जी करे उतनी शराब पिला दो, शनिवार और रविवार को यह समस्या और विकट हो जाती है क्योंकि इन दिनों काफी भक्त मंदिर में भैरो बाबा के दर्शन को आते हैं। सप्ताह के अंत के दौरान मंदिर परिसर में बोतलें और शराब के कार्टून बिखरे नजर आते हैं।

पर एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जागरूकता की परवाह कौन करता है? वह जो इस अंधकार में डूबा हुआ कुछ पाने के लिए हाथ में बोतल लिए खड़ा है?  शायद इसके लिए स्वयं पहले, लोगों को पाखंड से बाहर निकलना होगा जानना होगा कि धर्म का इन सारी बातों से कोई सम्बन्ध नहीं हैं, उनको इसे व्यापार समझना होगा उसे जानना होगा धर्म का सम्बन्ध तो सिर्फ एक चीज से है ‘‘वह ध्यान है।’’ और धर्म की एक ही खोज है, वह ज्ञान और सत्य है। शेष सब बकवास और पाखंड है सबसे छुटकारा पा लेना चाहिए…

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