Menu
blogid : 23256 postid : 1365384

क्या मुस्लिम समर्थक भी बौद्ध धर्म स्वीकार करेंगे?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

महात्मा बुद्ध के नाम पर अपनी राजनितिक रोटी सेकने वालों वालों को एक बार बुद्ध का जीवन पढ़ लेना चाहिए उसने मोक्ष (निर्वाण) के लिए राजपाट छोड़ा था और यह लोग अपने राजपाट के निर्माण के लिए आज महात्मा बुद्ध का प्रयोग कर रहे है. पिछले दिनों आजमगढ़ में एक रैली को संबोधित करते हुए बसपा अध्यक्ष मायावती ने कहा अगर सत्ताधारी दलों ने दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों के प्रति अपनी सोच नहीं बदली तो वे लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लेगी. लेकिन वोटों की राजनीति की धार्मिक ब्लैकमेलिंग में इस बात का जवाब कौन देगा कि अपने समर्थको यानि दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों में उसके साथ उसके कितने मुस्लिम समर्थक बौद्ध धर्म स्वीकार करेंगे?

जानकार कह रहे है कि उनके भाषण से प्रतीत हो रहा था कि जैसे वह केंद्र सरकार और उसके समर्थित हिंदूवादी दलों को चेतावनी दे हो कि मैं दलितों की विशाल आबादी का धर्म बदलकर उन्हें बौद्ध बना दूंगी तो तुम हिंदुत्व की राजनीति कैसे करोगे? हालाँकि आधुनिकता की दौड़ में जब बाजार की शक्तियां दुनिया पर प्रभावी हैं,  लगता है कॉरपोरेट संस्कृति की चकाचौंध में दलित केवल एक राजनीतिक शब्दावली बन कर रह गये है. कभी के समय में आदिवासी को साथ लेकर, पिछड़े कमजोर को सामाजिक रूप से उभारने के लिए कांशीराम ने पार्टी का जो ढांचा खड़ा किया था, वह बिखरा ही नहीं, समाप्त भी हो गया है. आज दलितों, पिछडों, और अल्पसंख्यक समुदायों को लेकर जो उसकी राजनीतिक जमीन थी, वह ध्वस्त हो चुकी है. कारण अधिकांश दलित समुदाय के लोग अपने नेताओं की हकीकत समझ चुके है. और सबसे बड़ा सवाल भी यही है कि दलितों को बौद्ध बनाकर मायावती कोई राजनीतिक उद्देश्य हासिल करना चाहती हैं या दलितों का उत्थान? या फिर इसी तरह दलितों के नाम पर राजनीति की रोटी सिकती रहेगी.

इस समय मायावती अपने राजनीतिक जीवन के सर्वाधिक संकट काल में हैं, लिहाजा वो वह सब कुछ करेगी जो उसे सत्ता तक पहुंचा सकता है. शायद उनकी चिंता इस बात को लेकर भी कि सामाजिक रूप से दलितों को अलग रखने की जो खाई उसने खोदी थी फिलहाल वह खाई पटती नजर आ रही है. वो कह रही हैं कि उन्होंने संसद से इस्तीफा भी बाबा साहेब का अनुकरण करते हुए दिया था. जबकि मायावती के बारे में कहा जाता है कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के धर्म परिवर्तन के पचास साल पूरे हुए तो मायावती 14 अक्तूबर 2006 को नागपुर दीक्षाभूमि गईं थी जहां उन्हें पहले किए गए वादे के मुताबिक बौद्ध धर्म अपना लेना था. यह वादा कांशीराम ने किया था कि बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन की स्वर्ण जयंती के मौके पर वह खुद और उनकी उत्तराधिकारी मायावती बौद्ध धर्म अपना लेंगे उसी दौरान मायावती ने वहां बौद्ध धर्मगुरूओं से आशीर्वाद तो लिया लेकिन सभा में कहा, मैं बौद्ध धर्म तब अपनाऊंगी जब आप लोग मुझे प्रधानमंत्री बना देंगे. बौद्ध भिक्षु  भी सोच में पड़ गए कि यह विशुद्ध धर्म के नाम पर राजनीति कर रही है.

जनवरी, 1956 में दिल्ली के एक साधारण परिवार में जन्मी मायावती 1984 में भारतीय राजनीति का हिस्सा बनती है. गरीब दलित दबे कुचले वर्ग की राजनीति करते-करते 1995 को देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तरप्रदेश की मुख्मंत्री और देखते-देखते करोड़ो अरबों रूपये की मालकिन बन जाती है. अब उसके सामने आय से अधिक संपत्ति रखने और उनके भाई आनंद कुमार की फर्जी कंपनियों में भारी निवेश का मामला भी खुला हुआ है. इस मामले में दलित चिंतक एसआर दारापुरी कहते है कि धर्म व्यक्तिगत मामला है. वह चाहे कोई धर्म अपना लें इसके लिए धमकी देने की क्या जरूरत है? अम्बेडकर ने बौद्ध बनने का फैसला किसी राजनीतिक मजबूरी में नहीं बल्कि सामन्तवाद से त्रस्त होकर हिंदू धर्म के सुधार के प्रयासों के विफल होने के बाद किया. फिर भी अगर मायावती बौद्ध हो ही जाएं तो सवाल ये भी है कि इससे भारतीय जनता पार्टी का नुकसान क्या होगा, और धर्म बदल देने से मायावती का लाभ क्या होगा?

हालाँकि धर्म के बारे में सामान्य रूप से कहा जाता है कि यह जीवन जीने का रास्ता बताता है. लेकिन यदि वर्तमान हालात पर गौर करें तो यह सत्ता तक जाने का रास्ता भी तलाश करता है. हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते इस बारे में गहराई में नहीं जाना चाहता. पर मेरा मानना है कि धर्म के नाम पर गुमराह करना बंद होना चाहिए. राजनेताओं को भूख, बेरोजगारी, कुपोषण भ्रष्टाचार आदि समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए यही एक राजा का वास्तविक धर्म और कर्तव्य है.

राजनेता जब धर्म को निज स्वार्थ के लिए उपयोग करें तो धर्म का इससे बड़ा दुर्भाग्य भला क्या होता होगा? लेकिन धर्म और राजनीति के घालमेल के कारण विचित्र परिस्थितियाँ निर्मित होती जा रही हैं. जिसमें जितने सवाल हैं उतने जवाब नहीं हैं. धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है किन्तु इसका वर्तमान स्वरूप काफी व्यथित करने वाला है. कला, संस्कृति से लेकर अब धर्म भी राजनीति के मंचो पर खड़ा नजर आ रहा है. यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति हमेशा बनी बनी रहेगी? यह सवाल भी सामने खड़ा है…राजीव चौधरी

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh