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कश्मीर में अधिक स्वायत्तता की वकालत के मायने

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने कश्मीर के लिए और अधिक स्वायत्तता की वकालत की है. कश्मीर में आतंकी हमलों और मजहबी जूनून में जलते चिनारों के बीच यह बयान कितनी और आग लगा सकता है, अभी कहा कुछ नहीं जा सकता. किन्तु इस बयान से कांग्रेस पार्टी सकते में जरूर आ खड़ी हुई हैं. दरअसल पी. चिदंबरम पार्टी में कोई छोटे-मोटे या स्थानीय कार्यकर्ता नहीं हैं, वे देश के कई बड़े संवैधानिक पदों पर रहे हैं. साथ ही उनकी गिनती देश के बड़े जाने-माने सुप्रसिद्ध वकीलों में भी होती है. उनका यह बयान उनकी पार्टी का कितना लाभ करेगा यह तो अभी सुनिश्चित नहीं है. मगर ऐसे बयान विश्व पटल पर एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र के रूप में उभरे भारत को जरूर हानि पंहुचा सकते हैं.


chidambaram


अक्सर घाटी से वहां के क्षेत्रीय नेताओं द्वारा स्वायत्‍तता सम्बन्धी बयान आते-जाते रहे हैं. मगर इस बार देश की प्रमुख पार्टी की ओर से यह बयान आना कहीं न कहीं राजनीति का नया रंग दिखा रहा है. हालाँकि, अधिक स्वायत्तता कितनी? इसका कोई निर्धारित मापदंड का मसौदा उनकी ओर से पेश नहीं किया गया. जबकि चिदम्बरम एक वकील हैं और वह जानते हैं कि संविधान के प्रथम अनुच्छेद में ही कहा गया है कि ’’भारत, राज्यों का एक संघ होगा. इकहरी नागरिकता होगी, संघ और राज्यों के लिए एक ही संविधान होगा, एकीकृत न्याय-व्यवस्था होगी.


मसलन एक नागरिकता, एक संविधान, एक न्यायप्रणाली लेकर जन्मे गणतंत्र भारत को एक राष्ट्र के रूप में जाना जाता है. लगभग 29 राज्य इकाइयों को जोड़कर बने देश में जम्मू-कश्मीर भी भारत की एक राज्य इकाई के रूप में जाना जाता है. अब यदि बात स्वायत्तता की करें, तो भारत का एक नागरिक होने के नाते मुझे इतनी स्वायत्तता नहीं है जितनी एक कश्मीरी को, एक कश्मीरी नागरिक को भारत में वो सब अधिकार प्राप्त हैं जो मुझे है, आपको है.


मगर एक भारतीय नागरिक होने के नाते हमें उतने अधिकार कहाँ हैं, जितने एक कश्मीरी नागरिक को? कश्मीर की राजकीय नागरिकता से लेकर अचल सम्पत्ति तक में क्या किसी अन्य भारतीय को अधिकार प्राप्त है? दूसरा, क्या कोई नागरिक भारतीय सेना पर पथराव कर सकता है? देश विरोधी नारे लगा सकता है? खुलेआम आतंकवादियों के झंडे लहरा सकता है और कितनी स्वायत्तता चाहिए? स्वायत्तता की भी कोई सीमा होती है ना?


इस कारण स्वायत्तता का सवाल ही यहाँ बेमानी है. हाँ, स्वायत्तता का मुद्दा हो सकता है, लेकिन वो मुद्दा पाक परस्ती में लगी घाटी की मजहबी तंजीमो के लिए होगा, सत्ता के लिए लालायित वहां के राजनैतिक दलों के लिए होगा, पर किंचित ही भारत की अखंडता को अक्षुण बनाये रखने की शपथ लेकर कम से कम 60 वर्ष सत्ता सुख भोगने वालों के लिए नहीं होगा? कहते हैं दुनिया का इतिहास अप्रत्याशित घटनाओं से भरा हुआ है.


आज धरती पर हर जगह राष्ट्र राज्य मौजूद हैं, पर ऐसा हमेशा से नहीं रहा है. अभी कुछ शताब्दी पहले ही यह विश्व राजसत्ताओं का विश्व था, लेकिन अचानक फ्रांस की क्रांति होती है और सारे विश्व में लोकतान्त्रिक राष्ट्र राज्यों का उदय होने लगता है. अगर इन देशों का उदय अचानक हो सकता है तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भविष्य में कभी अचानक कोई देश खत्म भी हो सकता है. स्पेन से केटोलेनिया, इराक से कुर्दिस्तान, पाकिस्तान से बलूचिस्तान समेत कई देशों में नये राष्ट्रों के उदय की किरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता.


हालाँकि, वर्तमान में हमारी राष्ट्रीय आस्था और सरकार इतनी कमजोर नहीं है कि एक या दो बयानों से वो राष्ट्र के बीच लकीर खींच दे. मगर हमें भूलना नहीं चाहिए कि इस दुखद हादसे से हम पूर्व में पाकिस्तान के रूप में गुजर चुके हैं. इसके बाद 80 का दशक भी हमारे लिए इतना अच्छा नहीं रहा. खालिस्तान का आंदोलन 1980 के दशक से शुरू हुआ और भारत विरोधी इस हिंसक आंदोलन में हजारों लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं थी.


चरमपंथ का वो लंबा दौर जो 1990 के शुरुआती सालों तक चला. जिसमें हमने हजारों मासूम लोगों के साथ देश की एक तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी खोया था, जिसकी हम कल परसों पुण्यतिथि मना रहे थे. शायद इस तरह के बयान और देश को तोड़ने वाली शक्तियों को राजनैतिक संरक्षण मिलने के कारण ही पिछले दिनों पंजाब में देश विरोधी ताकतें एक बार फिर सर उठाने लगी हैं. कुछ समय पहले ही पंजाब में एक बार फिर करीब 40 जगहों पर आजादी की मुहीम को हवा देने के लिए कुछ पोस्टर लगाए गए थे. जिनमें खालिस्तान समर्थकों ने जनमत संग्रह की मांग की थी.


जिस समय देश के सभी राजनैतिक दलों को आपसी मतभेद भुलाकर इस तरह के देश विरोधी कृत्यों की निंदा आलोचना के साथ उन्हें सख्त सन्देश देने की जरूरत थी, जिस समय केंद्र की ओर से कश्मीर में सभी पक्षों के लिए नियुक्त वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा की राह आसान करनी चाहिए थी, ऐसे समय में चिदम्बरम का बयान क्या देश हित में होगा?


शायद वह केंद्र सरकार की ओर से की जा रही कश्मीर नीति की राह में मुश्किलें बढ़ाना चाह रहे हैं. क्योंकि उनका बयान आते ही जिस तरह नेशनल कांफ्रेंस ने तुरंत बैठक बुलाकर स्वायत्तता सम्बन्धी प्रस्ताव पारित कर दिया कि कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता मिलनी चाहिए, इससे क्या समझना चाहिए. यही कि सत्ता पक्ष को दरकिनार कर कांग्रेस वहां अपना दल भेजकर यह दिखाने की कोशिश कर रही कि कश्मीर की फिजा में अमन का रंग भरने में केंद्र लाचार है?


दरअसल, कश्मीर की समस्या यह नहीं है, न उसे अन्य राज्यों की तुलना में कुछ कम अधिकार मिले हैं कि जिससे वह अपनी समस्याओं का सही ढंग से समाधान नहीं कर सके, बल्कि उसकी समस्या दूसरी है. कश्मीरियों की समस्या राष्ट्रीय नहीं, बल्कि राजनैतिक है. उन्हें स्वायत्तता जरूर मिलनी चाहिए, लेकिन वो स्वायत्तता कट्टरपंथी मजहबी तंजीमो से मिलनी चाहिए. उनके भविष्य पर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने वाले दलों से मिलनी चाहिए, पाकिस्तान की सरपरस्ती में लगे घाटी के अलगाववादी संगटनों से मिलनी चाहिये. इसके अलावा वहां किसी भी स्वायत्तता की वकालत के मायने बेकार हैं.

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