Menu
blogid : 23256 postid : 1357936

संसार में उपलब्ध ज्ञान का एकमात्र उद्देश्य है मनुष्य के जीवन को सुखी बनाना

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

Swami Dayanand


संसार में आज जितना भी ज्ञान उपलब्ध है, उसका एकमात्र उद्देश्य मनुष्य के जीवन को सुखी व श्रेष्ठ बनाना है। सद्ज्ञान ही वह पदार्थ, ज्ञान व धन है, जिससे मनुष्य श्रेष्ठ बन सकता है। हमारे पास आज एक ओर मत-मतान्तरों के ग्रन्थ व पुस्तकें हैं, तो दूसरी ओर ज्ञान व विज्ञान के ग्रन्थ व पुस्तकें हैं, जिनका प्रयोजन भी कहीं न कहीं समम्र व किसी देश विशेष की मनुष्य जाति की शैक्षिक, भौतिक एवं शारीरिक उन्नति ही होता है। इन सबके होने पर भी मनुष्य अध्यात्म के क्षेत्र में, वह चाहे किसी भी मत, सम्प्रदाय के क्यों न हो, शून्य व उससे कुछ ऊपर ही पाये जाते हैं।


इसका एक कारण तो यह समझ में आता है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह विचार, चिन्तन, तप व पुरुषार्थ से कुछ सीमा तक ज्ञान को प्राप्त तो कर सकता है, परन्तु वेदों के समान पूर्ण ज्ञान को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। विद्या प्राप्ति की एक अनिवार्य शर्त यह भी होती है कि विद्या प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति गुण, कर्म व स्वभाव से शुद्ध व पवित्र बुद्धि का हो। पूर्णतया पक्षपातरहित भी हो।


हमें लगता है कि मत व सम्प्रदाय वालों के पास एक अच्छे विद्यार्थी की योग्यता नहीं होती। वह अपने मत, पन्थ व सम्प्रदाय के प्रवर्तक, उसकी बताई व लिखी गई सत्य व असत्य बातों व किन्हीं साम्प्रदायिक स्वार्थों व विचारों से ग्रसित व पक्षपाती होते हैं। अतः वह सत्य ज्ञान को इस कारण प्राप्त नहीं हो पाते, क्योंकि ये बातें सत्य ज्ञान की प्राप्ति में बाधक होती हैं।


मत व सम्प्रदाय के आधुनिक आचार्य और मत-पुस्तक की लिखी बातें उन्हें अपने मतों से बाहर जाकर स्वतन्त्र, सत्य व असत्य का चिन्तन करने की अनुमति भी नहीं देती हैं। इसका परिणाम यही होता है कि वह अपनी मत पुस्तक का तोता रटन्त व्यक्ति बनकर रह जाता है। यही बातें हम प्रायः सभी मतों के अनुयायियों व वर्तमान के आचार्यों में देख रहे हैं।


ऐसा ही हमें आजकल देश में प्रचलित नाना धर्मगुरुओं में भी दिखाई देता है। वह उन्हें अपना अन्धभक्त बनाकर ही प्रसन्न हैं। वह अपने अनुयायियों को यह नहीं कहते कि उनसे पूर्व भी ऋषि, मुनि, ज्ञानी व महापुरुष हुए हैं, वह उनके जीवन चरित्र व ग्रन्थों को देखें और उनसे लाभ उठायें। सत्यार्थप्रकाश और वेद को पढ़ने की सलाह तो वह अपने अनुयायियों को भूलकर भी नहीं देते।


ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों से उन्हें अपनी स्वार्थ हानि होने का भय है और इसी कारण शत्रुता भी है। ऐसा करेंगे तो उनकी पोल खुल जायेगी और वह जो उन्हें धन दौलत और प्रतिष्ठा प्राप्त कराने में साधनभूत अनुयायी आदि हैं, उनसे दूर चले जायेंगे। मत मतान्तरों से इतर मनुष्य केवल ज्ञान व विज्ञान, जिसका धर्म व मत-मतान्तरों से किंचित सम्बन्ध न हो उसका ही चिन्तन कर सकता है। वहां उसे पूर्ण अथवा काफी सीमा तक छूट है। यह छूट यूरोप देशों में अधिक परन्तु अरब, मुस्लिम व भारत आदि देशों में शायद उतनी नहीं है।


इसका एक कारण यूरोप से इतर देशों के लोगों की प्रवृत्ति अधिकांशतः मत-मतान्तरों की अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं को जानने व उनका आंखों को बन्द करके पालन करने में है। इसी कारण ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र में जिसमें यूरोप या पश्चिमी जगत ने सफलतायें प्राप्त की हैं, उतनी भारत व निकटवर्ती मुस्लिम मत से प्रभावित देशों ने नहीं की है। यह भी एक कारण है कि हमारे आज के उच्च कोटि के वैज्ञानिक मत-मतान्तरों में या तो विश्वास ही नहीं करते अथवा वह अपने उद्देश्य अर्थात् अपने-अपने विषय के गम्भीर अध्ययन में लगे रहते हैं। उसमें सफलतायें प्राप्त करते रहते हैं, जिससे संसार की समस्त मनुष्यजाति को लाभ पहुंचा है।


धर्म की बात करें तो धर्म वह है, जिससे हमारी शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति होती है। यदि यह तीनों लक्ष्य धर्म से प्राप्त न हो रहे हों तो फिर उस धर्म का क्या करना? हमें लगता है कि इन तीनों लक्ष्यों वा उद्देश्यों की पूर्ति यदि किसी मत व धर्म से हो सकती है तो वह केवल वैदिक धर्म ही है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के तीसरे नियम में घोषणा की है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना ही सभी मनुष्यों का सर्वोपरि वा परम धर्म है।


इसके अनुसार जो मनुष्य वेद नहीं पढ़ेगा, वह धर्म तत्व को यथार्थ रूप में जान व समझ नहीं सकता है। वेदों को समझाने के लिए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश जैसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा, जो हम जैसे साधारण लोगों के लिए धर्म पुस्तक वा वेदों का प्रमुख अंग प्रतीत होता है। इस पुस्तक की सहायता से हमें वेदों के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का पूर्णतया से न सही परन्तु अधिकांश का बोध तो हुआ ही है।


संसार में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ग्रन्थों की कोटि का हमें तो कोई अन्य ग्रन्थ प्रतीत नहीं होता। इन दोनों का उद्देश्य अधिक से अधिक वेद के मन्तव्यों को उसके पाठक को संप्रेषित कर उसे वेद ज्ञान की प्राप्ति में प्रवृत्त करना ही है, जिसमें यह सफल सिद्ध होता है। हम जब अपने जीवन पर दृष्टि डालते हैं, तो हमें लगता है कि हमारा जीवन व हमारे समान आर्यसमाज के विद्वानों व अनुयायियों का जीवन कुछ व काफी सीमा तक वेदानुकूल, वेदानुरूप व कुछ-कुछ वेदमय बना है।


ये दोनों ग्रन्थ ऐसे हैं, जो मनुष्य से शत प्रतिशत अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, कुरीतियां व मिथ्या परम्पराओं को दूर कर देते हैं और एक ऐसे मनुष्य का निर्माण करते हैं, जो आज की आवश्यकता के अनुरूप ईश्वर को व उसके यथार्थ स्वरूप को जानने वाला, ईश्वर भक्त, आत्मोन्नति कर ईश्वर का अनुभव व प्रत्यक्ष करने वाला, देश भक्त, बुराइयों से सर्वथा दूर, समाज हितकारी, मानव मात्र से प्रेम करने वाला, सबके सुख व दुखों में सहायक, ज्ञान विज्ञान का पोषक व उत्तर चरित्र वाला बनता है।


ऐसा मनुष्य खानपान की सभी बुराइयों मांसाहार, मदिरापान, ध्रूमपान, अण्डे व मछली के सेवन आदि से भी दूर होता है। उनका विरोध व आन्दोलन करता है। उसका आदर्श होता है कि अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखकर उसके पास जो धन होता है, उसे परोपकार व विद्या वृद्धि अथवा वेदप्रचार में लगाना चाहिये, जिससे मानवमात्र सहित प्राणिमात्र का कल्याण हो।


हम सभी बन्धुओं से सारे ग्रन्थों को छोड़कर पहले केवल सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञविधि और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों को पढ़ने का आग्रह करते हैं। इससे आप वेद के निकट व निकटतर होंगे और ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य को पढ़कर भावी जीवन में एक सच्चे और अच्छे योगी, सद्ज्ञानी, देशभक्त, सच्चे समाज सेवक, पशु-पक्षी प्रेमी व उनके हितैषी, पूर्ण शाकाहारी, उत्तम चरित्र वाले बन सकते हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh