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दुर्लभ होता राजनीतिक शिष्टाचार

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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हाल के दिनों में अभद्रता की संस्कृति भारतीय राजनीति में इस कदर शामिल हो गयी कि लगने लगा शायद यह सब राजनीति का एक भाग है. तू-तू मैं-मैं तक सिमित रहती तो कोई बात नहीं, लेकिन अब यह गाली-गलौच बदतमीजी और बेशर्मी पर उतर आई और इस पर किसी एक राजनीतिक दल का एकाधिकार नहीं रहा, मसलन लगभग सभी इसमें शामिल हो चुके हैं. यदि बीते समय के कुछ बयानों पर गौर करें, तो आसानी से समझ आ जायेगा, जो जितना बड़ा गालीबाज वो उतना बड़ा नेता. आखिर हम किस भारत का निर्माण कर रहे हैं?


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बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए एक भाजपा नेता द्वारा अपशब्दों का इस्तेमाल करने की कहानी हम सबने सुनी. उसके पलटवार में बसपा नेताओं द्वारा उस भाजपा नेता की पत्नी और बेटी को पेश करने का फरमान सुनाया गया. हाल में कांगेस के बड़े नेता और पूर्व सूचना प्रसारण मंत्री द्वारा मोदी के जन्मदिन पर उन्हें अपशब्दों का उपहार दिया जाना हमने इसी राजनीति में देखा सुना. ऐसा होने की कुछ जायज वजहें भी रही हैं. मैंने कहीं पढ़ा था कि संयम-शिष्टता का राजनीतिक दल के नेताओं-समर्थकों का ट्रैक रिकॉर्ड उतना सदाचारी-संस्कारी नहीं रहा है, जैसा देश बनाने का वे रोज नारा लगाते हैं. यदि कोई इस नई संस्कृति का विरोध दर्ज करता है, तो उसे अक्सर इन सवालों का सामना करना पड़ता है, “तब तुम कहाँ थे?” और “उस मामले पर क्यों नहीं बोले?”


गौरी लंकेश की हत्या के बाद निखिल दाधीच को लेकर प्रेस क्लब से प्रधानमंत्री पर सीधा निशाना साधने वाली वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे फिर चर्चा में आईं. उन्होंने मोदी जी के जन्मदिवस पर एक गधे की तस्वीर के साथ लिखा- “जुमला जयंती पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन.” कोई और वक़्त होता तो इसे व्यंग्य या कटाक्ष समझकर लोग टाल देते, लेकिन इन दिनों सोशल मीडिया युद्धभूमि बना हुआ है, जिसका एक बड़ा शिकार “इन्सान की सोच” है. इन हालात में इन सब पर राजनीति होना लाजिमी है. अगर आप शिष्ट हैं तो और शिष्ट बनिए, अगर मानवतावादी हैं तो और उदारता दिखाइए, लोकतान्त्रिक हैं, तो विरोधियों को और जगह दीजिए. अगर पढ़े-लिखे हैं तो तथ्यों-तर्कों की बात करिए. किसी को गधा और कुत्ता बनाकर आप बड़े नहीं, छोटे ही बनते हैं.


इन सब हालातों में सवाल यह भी बनता है कि क्या भारतीय राजनीति सदा से ही ऐसी है या इसका यह विकृत रूप हाल ही में उभरकर आया? अतीत में झांककर देखें, तो वार्तालाप विरोध और आलोचना की ढेरों अच्छी परंपरा की मिसाल इसी भारतीय संसद में मौजूद है. कभी इसी भारतीय संसद में जवाहर लाल नेहरू भी थे, जो अपने विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी से माफी मांगने तक की हिम्मत रखते थे.


यह सिर्फ एक उदहारण नहीं है, बल्कि पूर्व के भारतीय राजनीतिज्ञों ने विरोधी राजनेताओं के प्रति बेहतरीन आचरण और शालीनता के उदाहरण पेश किए हैं. 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार लोकसभा में चुनकर आए तो जवाहरलाल नेहरू उनके भाषणों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन ये युवा सांसद भारत का नेतृत्व करेगा.


कहते हैं 1984 के चुनाव प्रचार के दौरान जादवपुर से मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सोमनाथ चटर्जी के पैर छूकर एक महिला ने उनसे आशीर्वाद मांगा. बाद में सोमनाथ चटर्जी ये सुनकर हतप्रभ रह गए कि ये महिला और कोई नहीं, उस सीट से उनकी प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी थीं, जो अंतत: इस सीट पर विजयी हुईं.


1984 के लोकसभा चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी चुनाव हार गए थे. उन्हें अपने इलाज के लिए अमेरिका जाना था, जहाँ इलाज कराना अब की तरह पहले भी बहुत मंहगा हुआ करता था. राजीव गाँधी ने उन्हें अपना विरोधी होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र जाने वाले भारतीय प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बनाकर भेजा. 1991 में जब राजीव गाँधी की हत्या हो गई, तो उनको श्रद्धांजलि देते हुए वाजपेयी ने ख़ुद यह स्वीकार किया कि राजीव ने उनके इलाज के लिए उन्हें अमरीका भेजा था.


भारतीय जनता पार्टी के शासन के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और उस समय केंद्रीय मंत्री प्रमोद महाजन के बीच तीखी नोकझोंक हो गई. चंद्रशेखर ने प्रमोद महाजन से कहा कि आप मंत्री बनने के लायक़ नहीं हैं. इस पर प्रमोद महाजन ने तुनक कर जवाब दिया कि आप प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं थे. ये सुनना था कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों सन्न रह गए कि प्रमोद ने यह क्या कह दिया. मगर अगले दिन प्रमोद महाजन गए और उन्होंने चंद्रशेखर से सबके सामने माफी मांगी.


पहले की पीढ़ी के नेताओं में प्रतिद्वंद्विता होते हुए भी एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव हुआ करता था जो अब नहीं रहा. वर्तमान प्रधानमंत्री ने जब अपना पद संभाला तो वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने गए. इस तरह के न जाने कितने क़िस्से हैं. 1971 के युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी का इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से करना, ममता बनर्जी का अपने धुर विरोधी ज्योति बसु का हालचाल पूछने अस्पताल जाना या अमरीका से परमाणु समझौता करने से पहले मनमोहन सिंह का बृजेश मिश्रा से सलाह मशविरा करना. ऐसे उदाहरणों की बड़ी लम्बी कतार है, लेकिन हाल के दिनों में अभद्रता की संस्कृति ने भारतीय राजनीति में इस क‍दर जड़ें जमाई हैं कि इस तरह की शालीनता के उदाहरण बीते जमाने की बातें लगते हैं.

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