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एक सामाजिक कुप्रथा का अंत

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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कुप्रथाओं को धर्म की चाबी से खोलने वालों को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जरूर निराश कर देने वाला होगा, किन्तु वहीं देश की करीब 9 करोड़ मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसी कुप्रथा से आजाद कराने का फैसला ‘‘22 अगस्त’’ 15 अगस्त से कम नहीं होगा, क्योंकि देश की राजनीतिक आजादी के 70 वर्षों के बाद आज उन्हें एक धार्मिक कुप्रथा से मुक्ति जो मिली है।


cover muslim women


22 अगस्त की सुबह देश के इतिहास की एक बहुत बड़ी तारीख बन गयी। एक साथ तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने तीन तलाक की प्रथा को 3-2 से असंवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर फिलहाल छह महीने के लिए रोक लगा दी है और केंद्र सरकार से इस पर संसद में कानून लाने के लिए कहा है। दरअसल, तीन तलाक का यह मामला शायरा बानो की एक अर्जी के बाद सुर्खियों में आया था। शायरा ने अपनी अर्जी में तर्क दिया था कि तीन तलाक न इस्लाम का हिस्सा है और न ही आस्था का, इसलिए इस पर रोक लगाई जानी चाहिए।


निःसंदेह निकाह की पवित्र रस्म के बाद एक मुस्लिम महिला के मन में जो सबसे बड़ा खौफ होता है वह था तीन तलाक। एक संवैधानिक भारत पिछले काफी अरसे से इस कुप्रथा को मजहब की आस्था के नाम पर ढ़ो रहा था। सिर्फ ढ़ोना ही नहीं, इसमें एक रोना भी था कि मेरे खुद के गाँव की कई वर्ष पुरानी घटना है, गाँव के शमसुद्दीन शेख की दो बेटियों का उसके साले के लड़कों यानी कि अपने ममेरे भाइयों के साथ निकाहनामा हुआ था। शादी के कई वर्षो के बाद शम्सु की एक बेटी को उसके शौहर ने तीन तलाक दे दिया। इस वाकये से गुस्साये शम्सु ने अपनी बीबी यानी की दामाद बुआ को तलाक दे दिया। इसके गाँव की पंचायत के दखल के बाद हलाला और और फिर दोबारा निकाहनामा हुआ।


निश्चित ही आज सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छा फैसला, लैंगिक समानता और न्याय की दिशा में एक और कदम कहा जाना चाहिए। इस निर्णय के बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए स्वभिमान पूर्ण जीवन एवं समानता के एक नए युग की शुरुआत होगी। मैं अभी बीबीसी की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था जिसमें दिया है कि भले ही इस्लामी कानून में तलाक शौहर का विशेषाधिकार होता है, लेकिन मुगलकालीन भारत में मुसलमानों में तलाक के बहुत कम मामले हुआ करते थे। मगर उस दौर के जाने-माने इतिहासकार और अकबर के आलोचक व उनके समकालीन अब्दुल कादिर बदायूनी 1595 में कहते हैं कि तमाम स्वीकृत रिवाजों में तलाक ही सबसे बुरा चलन है, इसलिए इसका इस्तेमाल करना इंसानियत के खिलाफ है। भारत में मुसलमान लोगों के बीच सबसे अच्छी परम्परा ये है कि वे इस चलन से नफरत करते हैं और इसे सबसे बुरा मानते हैं। यहां तक कि कुछ लोग तो मरने मारने को उतारू हो जाएंगे, अगर कोई उन्हें तलाक शुदा कह दे। तबके और आज के भारत में यह परिवर्तन आया कि तब मुसलमान तीन तलाक के विरोध में थे और आज अनेकों मुस्लिम संगठन इसके पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं।


दरअसल, भारतीय समुदाय में यदि शादी के बाद किसी की बेटी तलाक होकर घर आ जाये, तो उस लड़की को अपशकुन समझा जाता रहा है। कारण उसका आत्मनिर्भर न होना हो सकता है। दूसरा, लड़की को सम्मान और इज्जत के दृष्टिकोण से देखा जाना, उसकी अस्मिता के चर्चे इतने बड़े पैमाने पर होते आये हैं कि यदि वह अपने घर तलाक होकर आ जाये तो वह दर्द जो महिला सहती है उसका अनुमान कोई मौलाना, कोई धर्मगुरु या धर्म-मजहब नहीं लगा सकता। इस वजह से ग्रामीण कहावत भी है कि जिसकी बेटी ससुराल में सुखी उसके माँ-बाप का जन्म सुखी। मगर कई बार कुछ धार्मिक कुप्रथाएं एक महिला का सबकुछ छीन लेती हैं। चाहे इसमें शाहबानो गुजारा भत्ता मामला हो या रूपकुंवर का सती होना।


कानून कोई भी हो मजहब या धर्म की बुनियाद पर हो या संविधान की, उसे प्रत्येक नागरिक के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। लेखिका नासिरा शर्मा अपनी पुस्तक ‘औरत के लिए औरत’ में लिखती हैं कि शरीयत कानून जो अक्सर मुस्लिम महिला से उसका घर-परिवार और उसका ठिकाना छीन लेता है, चूँकि उस कानून की आड़ में उसका शौहर दूसरी, तीसरी यहाँ तक की चौथी शादी तक कर लेता है और औरत के पास आंसू बहाने, कोसने, दुआ-तावीज में पैसा फूंकने और मेहनत मजदूरी करके बच्चों के पेट पालने के अलावा कुछ नहीं रह जाता। उसका यह दुःख कहाँ से शुरू होता है बस यहीं से कि वह मर्द पर विश्वास करती है और अपनी अशिक्षा व अज्ञानता के चलते गुस्से, तनाव या किसी अन्य लालसा में कहे तीन तलाक को खुदा का हुक्म या अपना भाग्य समझ लेती है?


आमतौर पर गरीबों में शौहर द्वारा शादी के दौरान सबके सामने किए गए जुबानी वादे ही कानून माने जाते हैं। इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं रखा जाता। इस कारण भी अनेक गरीब महिलाएं सिर्फ खाली हाथ ससुराल से निकाल दी जाती रही हैं। मगर अब यह फैसला निश्चित ही एक क्रांतिकारी कदम होगा। इससे न केवल एक महिला में आत्मविश्वास जगेगा, बल्कि इससे औरत के सामाजिक स्तर पर भी स्थिरता आएगी। अभी तक जो वह परिवार में दोयम दर्जे का जीवन जीती थी अब वह खुद को निर्भय होकर परिवार की एक सम्पूर्ण इकाई महसूस करेंगी।

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