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उनका नारा मां, माटी और मौलवी!

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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जलती दुकान, जलते मकान, बेघर सुबकते लोग, मन में सवाल लिए जरूर घूम रहे होंगे कि क्या बंगाल में हिन्दू होना गुनाह है? ममता बनर्जी जब सत्ता में आईं, तब उनका नारा था मां, माटी और मानुष, लेकिन जिस तरह उनके वर्तमान कार्यकाल में काण्ड हो रहे हैं, उसे देखकर कोई भी कह देगा कि राज्य में उनका नारा मां, माटी और मौलवी ही बनकर रह गया।

west bengal violence

अब तक की ख़बरों से मालूम होता है कि उपद्रवी मुसलमानों की भीड़ ही हमलावर रही है, हिंदू इसमें शरीक नहीं हुए हैं। इस कारण इसे दंगे के बजाय सिर्फ मुस्लिम हिंसा का नाम देना भी गलत नहीं होगा। फेसबुक पर पोस्ट डालने वाला लड़का गिरफ्तार हो गया, फिर भी हिंसा हुई।

यह भी कहा जा रहा है कि गिरफ्तारी से मुसलमानों की आहत भावना संतुष्ट नहीं हुई है। तो वे चाहते क्या थे? क्या उस लड़के को उसी वक़्त सजा दी जानी चाहिए थी और क्या वह सजा भीड़ देती? लेकिन क्या उसके ऐसा करने से हिंसा न होती?  मालदा, धुलागढ़ और अब बशीरहाट बंगाल का मुस्लिम क्या यही चाहता है कि हर चीज सड़क पर निबटाई जाये?

ऐसा इसलिए नहीं है कि इस राज्य में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति कभी बनती ही नहीं, बल्कि इसलिए कि उनकी ख़बरें कभी बाहर आती ही नहीं थी। कम से कम पिछले हफ्ते तक तो यही सूरत थी। बंगाल में मुसलमान दूसरे राज्यों के मुक़ाबले ज्यादा संख्‍या में हैं। राजनीतिक दलों में भी वे दिखलाई पड़ते हैं। स्थानीय स्तर पर भी वे दबकर नहीं रहते, बल्कि चढ़कर रहते हैं।

पिछले साल मालदा में भी इसी तरह पैगम्बर मोहम्मद और मजहब के अपमान से गुस्साए मुसलमानों ने सरकारी संपत्ति को भारी नुक़सान पहुंचाया था। सड़क पर गाड़ियों को आग लगाते मुसलमानों की तस्वीरें ख़ूब घूमती रहीं।

इससे ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं, सिर्फ यही कि मुसलमानों को मौक़ा दो और देखो। बशीरहाट में मुसलमान बहुसंख्या में हैं। वहां प्रशासन मौन बना रहा। मीडिया की मानें, तो पूरे प्रकरण में जिस तरह वहां राज्य सरकार खामोश रही, इसे देखकर भी लोग अपनी-अपनी सुविधानुसार अंदाजा लगा सकते हैं।

सरकारी शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति वोट के लालच में सरकार को देखने नहीं देती कि यह बीमारी उसके भीतर मौजूद है, लेकिन यहां तो बंगाल के सबसे प्रभावशाली समाचार समूह ने भी इस हिंसा को ख़बर नहीं बनने दी। धूलागढ़ की हिंसा की ख़बर को भी इसी तरह दबाने की कोशिश हुई थी, हालांकि इस बार ख़बरें बाहर आ रही हैं।

हद है, कुछ सेक्‍युलरवाद से प्रभावित नेता इस घटना की निंदा करने की बजाय केंद्र सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि अल्पसंख्यको के खिलाफ काम कर रहे हैं। पर इसमें भी जो मुद्दे उठा रहे हैं, वो धर्म को लेकर ही हैं। ये अफसोस की बात है, 2017  में भी आकर इस्लाम को महमूद गजनवी के चश्मे से ही देखा जा रहा है। तैमूर की आंखों से, जो इतिहास का एक हिस्सा भर थे। जब थे, तब थे। जहां थे, वहां थे। अब किस बात का स्वांग?

इस मामले में ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है कि अगर आप मुसलमान हैं और आपको मेरी बात बुरी लग रही है, तो जान लीजिये कि आप पूरी तरह से अरबी दादागिरी की गिरफ्त में हैं। ये सब धर्म नहीं है। ये राजनीति है और शुद्ध राजनीति। अरबों का इस्लाम, धर्म नहीं है। मस्जिदों में इस्राईल को बद्दुआ देना मजहब नहीं है।

ग्यारह साल के बच्चे को एक कार्टून के लिए दोष देना और उस वजह से पचासों लोगों की दुकानें जला देना मजहब नहीं है। ये राजनीतिक दादागिरी है और आपके धर्म का ढांचा कुछ नहीं अब सिर्फ राजनीति है। बस गड़बड़ ये हुआ कि आपकी इस दादागिरी को लोगों ने अब तक सहा है, तो आपको ये अपने धर्म का हिस्सा लगने लगा है।

वो आगे लिखते हैं, इसे मजहब कहते हैं आप? शर्म नहीं आती आपको, खुद को मुसलमान कहते हुए? बांग्लादेश में आपने कितने ब्लाॅगर बच्चों को मार दिया, पाकिस्तान में  ईशनिंदा के नाम पर कितनों को मार दिया और यहां चूंकि आपका बस नहीं चल रहा है, तो आप दुकानें जला कर काम चला ले रहे हैं। ये बीमारी बहुत गहरी है और ये बीमारी बढ़ी ही इसलिए, क्योंकि सारी दुनिया ने इसे स्वीकार कर लिया। ये आक्रामक बने रहे और लोग इसे स्वीकार करते रहे।

ये मजहब है कि सारी दुनिया आपसे डरे? ये धर्म है कि वहां लोग चैन से जी न पाएं, जहां आप बहुसंख्यक हो जाएं? इस खूंखार मानसिकता को मजहब कहते हुए आपकी जुबान नहीं जलती है? दादागिरी और मजहब में फर्क समझिये। जल्दी समझिये क्योंकि दुनिया का भरोसा और सब्र अब टूट रहा है…

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