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ब्रह्म को अंग संग मान शुभ कर्म कर

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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परम पिता परमात्मा को हम दो अर्थों में जानते हैं. इन अर्थों के आधार पर ही नारी के गुणों का गान किया जाता है. नारी समाज की रीढ़ मानी गई है. नारी से ही समाज का कल्याण संभव है. इसलिए नारी के कर्म प्राय: शुभ ही होते हैं किन्तु वेद तो कहता है कि परमपिता परमात्मा की साक्षी में नारी सदा शुभ कर्म करे. इस सम्बन्ध में अथर्ववेद इस प्रकार उपदेश कर रहा है –

ब्रह्मापरं युज्यता ब्रह्म ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वत: अनाव्याधां देवापुरां प्रप. शिवा सयोना पतिलोके वि राज ||अथर्ववेद १४.१.६४||

परमेश्वर और वेद को एक ही २५ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा मन्त्र कहता है कि ब्रह्मा के मुख्यतरू दो अर्थ लिए जाते हैं. प्रथम अर्थ में ब्रह्म को हम परमेश्वर के अर्थ में लेते हैं तथा दूसरे अर्थ में ब्रह्म से हमारा भाव वेद से होता है. वास्तव में परमपिता परमात्मा तो सृष्टि का निर्माता है ही , इसके साथ ही इस सृष्टि के प्राणी – मात्र के कल्याण के लिए उस प्रभु ने जो ज्ञान दिया है, उसके दिए ज्ञान को हम वेद के नाम से ही जानते हैं. इस लिए इस वेद का स्वाद्याय भी हम प्रभू की साक्षी स्वरूप ही करते हैं अर्थात् हम परमेश्वर और वेद को एक ही रूप में जानते हैं. इसलिए यह दोनों अर्थ एक ही रूप में लिए जा सकते हैं. शुभ कर्म करते रहना माता को निर्माता माना गया है क्योंकि माता ने निर्माण करना होता है, इसलिए आप के आँगन में आई नववधू को इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से उपदेश किया गया है कि हे नव वधू !, हे हमारे परिवार में पधारी नव वधू ! परम पिता परमात्मा, जिसे हम परब्रह्म के नाम से भी जानते हैं, वह प्रभु सब दिशाओं में व्यापक है. इस विश्व के प्रत्येक दिशा में वह प्रभु निराकार होने के कारण व्यापक है. इस प्रभु को अपने अंग -संग जानते हुए तूं सदा शुभ कर्म करने में तत्पर रह.

वह निराकार प्रभु सब और समान रूप से समान ही है. इस कारण ही वह सदा हमारे अंग – संग हो पाता है. इसलिए सदा यह जानो कि प्रभु हमारे साथ है, सामने है, ऊपर है, आगे है और पीछे भी है. जब हम प्रभु की उपस्थिति सदा अपने साथ पाते हैं तो हमारा साहस ही नहीं हो पाता कि कभी हम अशुभ , गलत कार्य करें. इस अवस्था में हमारे से सदा शुभ काम ही होगा. इस तथ्य को ही मन्त्र आँगन में आई नव वधु को समझाने का यत्न करते हुए कह रहा है कि प्रभु को अंग – संग मानते हुए , जानते हुए हे नववधु! तूं उत्तम कर्म , शुभ कर्म करने के कार्य में स्वयं को तत्पर रख, सदा शुभ कर्म करते रहना.

इसके साथ ही साथ मन्त्र यह भी कहता है कि कभी अशुभ अथवा पाप का आचरण न करना द्य आचरण वेदानुसार हो इसके साथ ही मन्त्र उसे उपदेश करते हुए कह रहा है कि तूं सदा वेदज्ञान से प्रेरित रहना अर्थात् सदा वेद ज्ञान का स्वाध्याय करते हुए तथा उस के आदेशों पर आचरणकरते रहना. इस ज्ञान को तूं सदा अपने प्रत्येक कार्य में उपयोग करना. तेरा प्रत्येक आचरण वेदानुसार हो. इस के व्यवहार में ही प्रसन्नता अनुभव करना. तूं अपने २६ वेद में आदर्श स्त्री शिक्षा प्रत्येक व्यवहार में, चाहे वह व्यवहार ऊपर का हो या नीचे का, सामने का हो या पीछे का अथवा यह व्यवहार दायीं और का हो अथवा बाएँ और का, सब व्यवहारों में वेद के आदेश का ही आचरण करना, वेद के अनुरूप ही चलना. इतना ही नहीं तेरे प्रत्येक कार्य में, तेरी प्रत्येक गतिविधि में वेद सदा तेरे साथ जुडा रहे. इस प्रकार कभी भी तेरा कोई भी आचार अथवा व्यवहार वेद के विरुद्ध न हो.

विद्वानों के निवास के लिए मन्त्र आगे कहता है कि हे नववधू! तूं इस प्रकार के निवास को प्राप्त कर, जो रोग रहित हो अर्थात् यह स्थान पूरी भाँति से साफ सुथरा हो, इसमें किसी प्रकार के रोगाणु निवास न करते हों. अपने ऐसे उत्तम स्थान को विद्वानों के निवास के लिए बना कर रख. इस प्रकार तूं कल्याणकारिणी बन, सुखकारिणी बन. सब प्रकार के कल्याण व सुखों का स्रोत बन कर अपने पति के निवास पर विराजमान हो, निवास कर. इस प्रकार इस मन्त्र में तीन बातों को प्रकाशित किया गया है रू- १ ब्रह्म अर्थात् परमात्मा सर्व व्यापक है तथा उसे ऐसा ही मानते हुए उस पर आचरण करने का अपने परिजनों में उपदेश कर. २ वेद के ज्ञान को न केवल प्राप्त कर बल्कि तदनुरूप अपना व्यवहार बना. ३ अपने अत्यंत कल्याणकारी तथा सुखद व्यवहार से , उत्तम स्वभाव से सब के लिए कल्याकारिणी व सुखदायिनी बन…डॉ अशोक आर्य

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