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जीवन एक निरंतर अग्निहोत्र

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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मानव जीवन एक निरंतर चलने वाले यज्ञ के सामान है. हम सदा एवं सर्वत्र यह यज्ञ करते हुए अपने जीवन को भी अग्निहोत्रम य बनावें. जिस प्रकार अग्निहोत्र सर्वजन सुखाय होता है, उस प्रकार ही हमारा जीवन भी सर्वजन सुखाय ही हो. इस भावना को यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह अंतिम मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है-

सवितुस्त्वा प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभि:। सवितुवर्रू प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभि:

मन्त्र उपदेश कर रहा है कि

१  पौष्टिक वातावरण में रहें

समुदाय का एक व्यक्ति जब उत्तम होता है तो पूरा का पूरा समुदाय  ही उत्तमता की और अग्रसर हो जाया करता है. समुदाय के स्वास्थ्य का प्रभाव सदा व्यक्ति पर पड़ता है. यदि मेरे चारों और के व्यक्ति स्वस्थ हैं, हृष्ट-पुष्ट हैं, ज्ञानवान् हैं तो इस समुदाय का प्रभाव मेरे पर भी पड़ना अनिवार्य हो जाता है.  इन के प्रभाव से मैं भी स्वस्थ बनूंगा मैं भी हृष्ट व पुष्ट बनूँगा, मेरे में भी ज्ञान का आघान होगा.  क्योंकि मेरे चारों और का वातावरण इन गुणों से भरा हुआ है तो इन गुणों की वर्षा समुदाय के अन्दर के प्रत्येक प्राणी पर होना आवश्यक है. अत: मैं ही नहीं मेरे साथ के लोगों में भी इन सब गुणों का आघान होगा. सब लोग स्वस्थ , हृष्ट-पुष्ट और ज्ञानवान् होंगे.

२  क्षेत्र रोगाणु रहित हो

इस के उल्ट यदि हमारे समुदाय के चारों और यदि कूड़े करकट के ढेर लगे रहेंगे तो इस क्षेत्र में रोगाणुओं का होना भी अनिवार्य हो जाता है. जहाँ रोगाणुओं का, रोग के कृमियों का निवास हो, उस क्षेत्र के समुदाय पर इनका प्रभाव न हो , यह तो कभी संभव ही नहीं होता. अत: इस क्षेत्र के निवासियों पर यह रोगाणु सदा ही हमले करते ही रहेंगे और इस क्षेत्र के लोगों का स्वास्थ्य खतरे में पड जावेगा. परिणाम – स्वरूप इस क्षेत्र का निवासी होने के कारण इस सब का प्रभाव मेरे स्वास्थ्य पर भी पडेगा और मैं किसी भी प्रकार रोगों से बच न पाउँगा और रोग – ग्रस्त हो जाउंगा.

३  उत्तम स्वास्थ्य के लिए अग्निहोत्र

मैं सदा स्वस्थ रहूँ.  मेरे क्षेत्र के लोग सदा स्वस्थ रहें.  मेरे चारों और का स्वास्थ्य उत्तम हो , इसके लिए हमें इस प्रकार के उपाय करने होंगे कि सब समुदाय का क्षेत्र स्वास्थ्य वर्धक गुणों रूपी वातावरण में पुष्पित व पल्वित होता रहे. इस के लिए आवश्यक है कि हम सदा अग्निहोत्र की शरण में रहें और दूसरों को भी एसा ही करने के लिए प्रेरित करें. इस हेतु ईश्वर हमें आशीर्वाद देते हुए उपदेश करते हैं कि

क)  तेजोसि

जब जीव अपने समुदाय में उत्तम स्वास्थ्य के साथ निवास कर रहा होता है तो प्रभु उसे अनेक प्रकार की प्रेरणाएं देता है. इन प्रेरणाओं में एक है तेजोैसि अर्थात् हे जीव !  तूं तेजस्वी है. उत्तम स्वास्थ्य सदा ही तेजस्विता का कारण होता है.  जो व्यक्ति  रोगों से ग्रस्त रहता है , वह सदा दुरूखों में, संताप में डूबा रहता है तथा कष्ट-दायक जीवन यापन कर रहा होता है.  इस प्रकार का जिवन  जीने वाले के पास न तो समय ही होता है और न ही इतनी शक्ति ही होती है कि वह कभी कहीं से भी कोई उत्तम प्रेरणा प्राप्त कर सके द्य  इसलिए प्रभु ऊत्तम स्वास्थ्य लाभ पाने वाले प्राणी को ही तेजोअसि का आशीर्वाद देता है और कहता है कि हे जीव!  तूं तेजस्वी बन.

ख)  शुक्रम् असि

हम जानते हैं कि शुक्र से अभिप्राय वीर्य से होता है द्य वीर्य सब शक्तियों का आधार होता है.  जो व्यक्ति अपने वीर्य का नाश कर लेता है , वह शक्तिहीन हो जाता है.  इसलिए वीर्य की रक्षा आवश्यक होती है .इस कारण ही इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा आशीर्वाद देते हुए कह रहा है कि हे जीव!  तूं वीर्यवान बन क्योंकि उत्तम वीर्य से युक्त व्यक्ति का स्वास्थ्य सदा उत्तम रहता है .

ग)  अमृतम् असि

जिस मनुष्य का स्वास्थ्य उत्तम होता है , वह सदा रोगों से मुक्त रहता है. इस लिए मन्त्र के माध्यम से उपदेश देते हुए प्रभु जीव को आशीर्वाद देते हुए आगे कहते हैं कि अमृतम् असि  हे जीव! तूं स्वस्थ होने के कारण कभी कष्ट दायक असमय को मृत्यु प्राप्त ही नहीं होगा.

घ)  धाम असि

अमृत का पान करने के कारण हे जीव तूं धाम असि अर्थात् तेज का पुंज बन गया है. तेरे शरीर के प्रत्येक अंग से तेज टपकने लगा है. तेज से प्राप्त तेजस्विता ने तेरा यश, तेरी कीर्ति सब और पहुंचा दी है. इस के साथ ही साथ नाम अर्थात् तेरे में विनम्रता भी है.  स्वभाव से विनम्र होने के कारण तेरे अन्दर जो शक्ति है , वह विनय से विनम्रता से विभूषित है.

ङ)  देवानां प्रियं

इन सब कारणों से तूं अनेक प्रकार के दिव्यगुणों का स्वामी बन गया है. तेरे अन्दर अनेक प्रकार के दिव्य गुण आ गए हैं.  इसलिए तूं देवताओं को अत्यधिक पसंद होने के कारण देवता लोगों का तूं प्रिय हो गया है.

च)  अनाधृष्टम्

इन दिव्यगुणों का स्वामी होने के कारण तूं कभी धर्षित न होने वाला बन गया है.

छ)  देवयज्ञनम्

तूं अबाधित रूप से निरंतर अग्निहोत्र करने वाला बन गया है. सदा अग्निहोत्र के कार्यों को संपन्न करने के लिए प्रयासरत रहता है. इस प्रकार तूं देवों का , देने वालों का यज्ञ करने वाला बन गया है.  निरंतर देवयज्ञ करने वाला होने के कारण  तूं अबाध गति से यज्ञ करने वाला हो गया है. तेरा यह अगनिहोत्र सदा ही अविच्छिन्न रहता है.  इस में कभी कोई बाधा नहीं आती.

जब तूं पुरुषार्थ करते हुए इस देवयज्ञ को निरंतर करता है तो देवता लोग तेरे से अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और इस कारण सब आवश्यक पदार्थ तुझे उपलब्ध करवाते हैं किन्तु तेरे अन्दर जो यज्ञ की भावना है, जो परोपकार की भावना है, जो दूसरों को कुछ देने की भावना है, तूं कभी इस भावना को भूलता नहीं और कुछ देने की अभिलाषा अपने अन्दर सदा बनाए रखता है, इस कारण ही तूं कुछ भी लेने के स्थान पर सब कुछ देवताओं के अर्पण कर देता है. अपने लिए कुछ भी नहीं रखता. यदि कुछ रखता है तो वह होता है यज्ञशेष.  भाव यह है कि तूं केवल यज्ञशेष को अर्थात् यज्ञ करने के पश्चात् शेष रूप में बचे का ही स्वयं के लिए उपभोग करता है. यह ही तेरी पवित्र कमाई है.

इस प्रकार मन्त्र ने हमें उपदेश किया है कि हमारा जीवन अनाधृष्ट देवयजन हो. हम बिना किसी बाधा के सदा प्रभु की सृष्टि को स्वास्थ्यवर्धक बनाए रखने के लिए यज्ञ की कड़ी को कभी टूटने न दे और इसे करने की परम्परा को सदा बनाये रखें. हम इस बात को कभी मत भूलें की देवताओं के हमारे ऊपर बहुत से ऋण हैं.  इन सब ऋणों से उऋण होने का एकमात्र साधन यह देवयज्ञ ही है.  इस ऋण से उऋण होने के लिए यह अगनिहोत्र ही एकमात्र साधन है. इससे हम अनेक प्रकार के वार्धक्य अर्थात् उन्नति को प्राप्त करते हैं और मृत्यु होने पर भी हम पुन: बंधन में नहीं आते और मुक्ति को प्राप्त होते हैं…डॉ अशोक आर्य

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