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धर्म के नाम पर अधर्म क्यों?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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भारत एक प्रजातन्त्रीय देश है जिसके नागरिकों को अनेक प्रकार की स्वतन्त्रता और अधिकार संविधान के अन्तर्गत दिए गए हैं। प्राप्त अधिकारों व स्वतन्त्रता के साथ ही संवैधानिक रूप से कुछ कर्त्तव्यों और अवश्य पालनीय सामाजिक नियमों के मानने का निर्देश में संविधान में निहित है। अधिकार और कर्त्तव्य का जब तब ईमानदारी से पालन होता है, किसी की उपेक्षा या स्वतन्त्रता के नाम पर शोषण अतिक्रमण नहीं होता है तब तक ही किसी राष्ट्र की व्यवस्था व्यवस्थित रह सकती है।

व्यक्ति व किसी भी संगठन से बड़ा राष्ट्र होता है। ‘‘राष्ट्र प्राणों से बड़ा होता है, हम मिटते हैं तो राष्ट्र खड़ा होता है।’’ शास्त्रों ने, विद्वानों ने धर्म की 5 प्रकार से व्याख्या की है। व्यक्तिगत धर्म, पारिवारिक धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म, वैश्विक धर्म। इसलिए व्यक्तिगत धर्म से बड़ा राष्ट्रीय धर्म होता है। यही राष्ट्रीय धर्म प्रत्येक नागरिक के लिए सर्वोपरि है और होना भी चाहिए।

किन्तु अतीत साक्षी है प्रजातन्त्र के इस देश में महत्त्वाकांक्षी विचारों वाली राजनीति ने संविधान  के  आदर्शों,  उसकी  मान्यताओं को, मानवीय, राष्ट्रीय  अधिकारों की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों का पोषण, और राष्ट्रीयता का शोषण किया है। अपने स्वार्थ में मजहबी विचारधाराओं को आश्रय देकर उनकी अनुचित मांगों व कर्त्तव्यों को मात्र अपना समर्थन जुटाने में वे उचित, अनुचित सब मान्य करते रहे। इसका लाभ उठाते हुए जब किसी को कोई बात मनवानी हो तो उसके पक्ष में धर्म रूपी शस्त्र काम आता है। किसी बात को मानने या किसी को न मानने मेंं दलील देकर, धर्म की दुहाई देकर सबको चुप करवा दिया जाता है।

इस प्रकार स्वार्थ जहां आता है, वहां अपनी बात को धर्म के नाम पर भुनाने का हथकण्डा वर्षों से चल रहा है। इसी साम्प्रदायिकता का और तुष्टिकरण का ही परिणाम पाकिस्तान का जन्म है।

जिस माटी में पले-बड़े हुए उस माटी से अपने मजहब या धर्म को राष्ट्र से बड़ा बताकर कोई भी कार्य को महत्त्व देना सरासर गलत है।

आज देश की जनसंख्या बेहिसाब बढ़ती जा रही है, देश का एक तबका सन्तान वृ( की उपेक्षा कर तेजी से देश की व्यवस्था को बिगाड़ रहा है। देश की आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी, आवास व्यवस्था, खाद्यान्न व्यवस्था सबको प्रभावित कर राष्ट्र हित के विरु( कार्य कर रहा है। जबकि शासन छोटे परिवार के नाम पर अनेक प्रकार के प्रयत्न करता है। किन्तु वही सबकुछ हो धर्म के नाम पर कुछ विचारधारा द्वारा राष्ट्र की उपेक्षा की जा रही है। क्या यह मजहबी धर्म की आड़ में राष्ट्रीय धर्म की उपेक्षा और असहयोग नहीं हो रहा है ? क्या अपनी भावनाओं के कारण राष्ट्र की करोड़ों जनता की समस्याओं को कुचलते हुए राष्ट्र को क्षति पहुंचाना क्या धर्म है ?

हाल ही में सोनू निगम ने मस्जिद से माईक पर आने वाली  आवाज  के सम्बन्ध में आपत्ति उठाई। इस पर तरह-तरह की चर्चा और विवाद खड़ा हो गया।  उसकी पीड़ा जो करोड़ों-करोड़ों भारतीयों की है, कोई उस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है। अन्यान्य कारणों से इस प्रकार से होने वाले उस सामाजिक कष्ट को अनदेखा कर कोई सही कहना नहीं चाहता।

यह सरासर धर्म के नाम पर अधर्म है, इस्लाम परमात्मा को साकार नहीं मानता है। फिर वह अजान से आवाज देकर किसको सुनाना चाहते हैं ? वैसे भी धर्म प्रदर्शन का विषय नहीं, मात्र बोलचाल का नहीं है, वह तो आन्तरिक विषय व मौन कर्म है।  धर्म आचरण का विषय है  ”धारणात्धर्म इत्याहुः“ जो  धारण किया जावे, वह धर्म है। प्रदर्शन या मात्र बाहरी चर्चा धर्म का विषय नहीं, वह तो आत्मा का आन्तरिक और शान्त प्रयास है। परमात्मा की उपासना, प्रार्थना, शान्त चित्त से, एकाग्र मन से की जाती है। भारत में प्रत्येक को अपनी धार्मिक मान्यता को करने की स्वतन्त्रता है। परन्तु धर्म यह नहीं कहता कि अपनी मान्यता के लिए किसी दूसरे को परेशान करना चाहिए। यह धर्म नहीं अधर्म है। धर्म कहता है ”आत्मानः प्रतिकूलानी परेषां न समाचरेत्।“ अर्थात् हम दूसरे से अपनी आत्मा के समान व्यवहार करें। जो अपनी आत्मा को अच्छा लगता है वैसा व्यवहार दूसरों से करें। जो व्यवहार अपने को अच्छा नहीं लगता वह व्यवहार हम दूसरों से न करें।

अजान देना है तो देवें इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि बड़ी ऊॅंची आवाज में कानों को कष्ट देती आवाज में अजान जो औरों के लिए उपयोगी नहीं है कष्टदायी है, वह करना ही धर्म है।

विशेषकर सुबह 5 बजे, 4.30 बजे होने वाली अजान से अनेक व्यक्ति प्रभावित होते हैं। कई व्यक्ति बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें डॉक्टर ने आराम की सलाह दी होती है। रात में नींद नहीं आती, नींद की दवा, गोली लेकर सोते हैं जब सुबह-सुबह नींद आती है, तो अजान से बीच में नींद खुल जाती है। यह उनके लिए कष्ट का कारण है। बीमार व्यक्ति को पूर्ण आराम की आवश्यकता होती है, उसके अभाव में वह कभी स्वस्थ हो ही नहीं पायेगा, ऐसा विघ्नकारी कर्म धर्म नहीं है।

कोई व्यक्ति मेहनत, मजदूरी करके काम से लौटकर देर रात में सोता है, सुबह फिर काम करने जाता है, शरीर को आराम जरूरी है अन्यथा उस पर बुरा असर होगा पर अजान की आवाज उसे समय से पहले उठा देती है। कोई विद्यार्थी दिन के अशान्त चिल्ला-पुकार के वातावरण के स्थान पर शान्ति से देर रात को पढ़ाई करके सोता है, किन्तु अजान से उसे बीच में उठना पड़ता है, नींद पूरी नहीं होती है। इसका स्वास्थ्य व मस्तिष्क पर गलत प्रभाव होता है, यह सब क्या है ?

पहले बिना माईक के भी अजान होती थी। सुबह की अजान एक साथ व कुछ समय के लिए होती थी। अब एक शहर में जहांॅं कई मस्जिदें हैं अब वहॉं से लम्बे समय तक और अलग अलग समय में होती हैं। यह क्यों है? यह जानबूझकर अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रभाव बढ़ाने की योजना है। क्या इस प्रकार की शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना धर्म है ?

जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और वैसे ही ध्वनि प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, सामाजिक अव्यवस्था है, शासकीय नियम उपनियमों की सरेआम उपेक्षा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस प्रकार के प्रदूषण को अनुचित बताया है। इस प्रकार इन समस्त बातों को ध्यान में रखकर इस प्रवृत्ति पर चिन्तन करना चाहिए।

बुराई किसी धर्म, सम्प्रदाय तक सीमित नहीं, बुराई तो बुराई है। यहां एक बात और इसी सन्दर्भ में जोड़ना चाहता हूं यह केवल अजान तक ही ध्वनि प्रदूषण नहीं है, देर रात तक अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में, विवाह आदि के अवसर पर बड़े बड़े डी. जे., तेज आवाज में स्पीकर बजाना भी अनुचित है। इस पर भी नियन्त्रण होना चाहिए, डी. जे. की भारी भरकम आवाज हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों को या किसी भी बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति के लिए बहुत कष्टदायक होता है। ऐसे भजन, गीत, सूचनाएं मनोरंजन के स्थान पर कष्ट पहुंचाते हैं और पीड़ित व्यक्ति उनको कोसते हैं।

अजान का विरोध नहीं है, किन्तु अपनी विचारधारा के लिए दूसरों को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए। कम से कम सुबह की अजान का समय व ध्वनि पर नियन्त्रण करना नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार एक ही देश में सिक्के के दोनों पहलू पर अपनी ही जीत वाली स्थिति ठीक नहीं है। एक ओर दूसरी विचारधारा को तो हम नहीं मानेगें किन्तु हमारी विचारधारा को हम जबरन दूसरों पर थोपें। यह कितना अव्यावहारिक व तथ्यहीन व्यवहार है। गाय को हिन्दू समाज पूज्य मानता है किन्तु अन्य मजहबी विचारधाराएं हिन्दुओं की इस पवित्र भावना की सरासर उपेक्षा कर रही हैं। क्या एक राष्ट्र में ऐसा व्यवहार उचित है? अजान कितनी भी जोर से देवें या धीमी आवाज में करें क्या अन्तर पड़ता है? किन्तु अपनी हठधर्मी, दिखावे से उसे महत्त्व देना एक साम्प्रदायिकता का प्रतीक है। एक अच्छे व्यक्ति, अच्छे समाज और अच्छे राष्ट्र की कल्पना का आधार धर्म है, साम्प्रदायिकता नहीं।

प्रकाश आर्य

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