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बर्बरता से बाहर का रास्ता कब?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में एक तांत्रिक ने देवी की प्रतिमा के सामने अपनी मां की कथित तौर पर बलि चढ़ा दी. हत्या अभियुक्त नारायण महतो ने पशुओं को मारने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक धारदार हथियार से अपनी मां फूली महतो का गला काट दिया. इस मामलें में पुलिस ने भले ही अपराधी को गिरफ्तार कर लिया हो लेकिन सवाल अभी भी आजाद घूम रहे है कि 21 वीं सदी में ऐसे अमनुषिक कृत्य भारत में अभी भी क्यों हो रहे है? क्यों अभी भी धर्म पर अन्धविश्वास हावी है? यह कोई अकेली घटना नहीं है कि नजरंदाज किया जाये बल्कि कभी डायन के नाम पर तो कभी धन प्राप्ति के लिए भारत के कुछ राज्यों में यह घटना आम होती रहती है. अज्ञानता और अन्धविश्वास इन राज्यों को अभी भी अपनी गुलामी में जकड़े हुए है. पिछले माह ही ओडिशा में बालनगीर में भाई ने देवी काली को प्रसन्न करने के लिए बहन का सिर काट दिया था. इससे पहले जुलाई 2016 में झारखंड के गोड्डा जिले के सुदूर गांव में जादू-टोना सीखने आए युवकों ने अपने गुरु की ही बलि चढ़ा दी थी. इन्हें लगा कि गुरु की ही बलि दे दी जाए, तो उनकी सारी विद्या इन्हें प्राप्त हो जाएगी. इससे थोडा सा पीछे जाएँ तो पिछले साल ही झारखंड के प्रसिद्ध छिन्नमस्तिका मंदिर में एक व्यक्ति ने पूजा के दौरान अपना गला काटकर जान दे थी.

ऐसी घटना अकेले भारत में ही नही वरन पुरे विश्व में होती रही है हालाँकि मानव बलि के पीछे के तर्क सामान्य रूप से धार्मिक बलिदान के जैसे ही हैं. मानव बलि का अभीष्ट उद्देश्य अच्छी किस्मत लाना और देवताओं को शांत करने की लालसा आदि में होता है, प्राचीन जापान में, किसी इमारत निर्माण की नीव में, अथवा इसके निकट प्रार्थना के रूप में किसी कुंवारी स्त्री को जीवित ही दफन कर दिया जाता था जिससे कि इमारत को किसी आपदा अथवा शत्रु-आक्रमण से सुरक्षित बनाया जा सके. दक्षिण अमेरिका में भी नरबलि का लंबा इतिहास रहा है. शासकों की मौत और त्योहारों पर लोग उनके सेवकों की बलि दिया करते थे. पश्‍चिमी अफ्रीका में उन्नीसवीं सदी के आख़िर तक नरबलि दी जाती थी. या फिर चीन की महान दीवार के बारें में कहा जाता कि उसे अनगिनत लाशों पर खड़ा किया गया था. लेकिन वो पौराणिक काल था जिसमें मानव सभ्यता ज्ञान से दूर थी. हाँ इसमें भारत का वैदिक कालखंड सम्मलित नहीं होता. वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है. जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध दानवी आचरण करता है.

विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में समय के साथ विक्रतियां आती गयी लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और अज्ञानता में लिप्त समाज में उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा. जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना ‍अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वृक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली. बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है. लेकिन आज भी इनका इसी रूप में जीवित रहना इस बात के जरुर संकेत देता है कि अन्धविश्वास की जड़ें अभी भी देश में बहुत गहराई तक समाई है.

हमारे देश में अन्धविश्वास पर बनने वाली फिल्में बहुत पसंद की जाती है लेकिन इन फिल्मों का लेशमात्र भी सकारात्मक असर समाज पर नहीं पड़ता हाँ इसका नकारत्मक असर जरुर दिखाई दे जाता है इसका जीता – जागता उदाहरण सदियों बाद भी समाज में बलि प्रथा का कायम रहना है. थोड़े समय पहले ही भारत में आई बाहुबली फिल्म में किस तरह ताकत व युद्ध की जीत के की प्रप्ति के लिए पशुबलि को दिखाया गया था. बहुत से समुदायों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समुदायों में आज भी विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है. दो वर्ष पहले मेरे ही सामने की घटना है उत्तराखंड के चकरोता जिले में एक परिवार ने अपने लड़के के जन्मदिवस पर देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तीन पशुओं की बली दी थी.

इससे साफ पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर हम कितने भी खुद को ज्ञानवान दिखाए लेकिन स्थानीय स्तर पर कई जगह आज भी हम हजारों साल पीछे है. भले ही आज इसके लिए कानून हो लेकिन अभी भी  बहुत सारे आदिवासियों में नर बली या पशु बली के अंधविश्वास की परंपरा आज भी कायम है. ज्यादा दूर की बात नहीं 2015 राजस्थान में अलवर जिले के पहल गाँव के एक खंडहर में दबे कथित खजाने के लालच में हुई दो बच्चों की कथित बलि का मामला सबके सामने आया था. 2013 में राजधानी दिल्ली के भलस्वा इला़के में एक बच्चे की सिरकटी लाश मिली थी. पुलिस ने शक के आधार पर बताया था कि बच्चे की हत्या बलि के लिए की गई है. दरअसल, नरबलि का इतिहास बहुत पुराना है. दुनिया की विभिन्न पौराणिक संस्कृतियों में नरबलि का प्रचलन रहा है, लेकिन व़क्त के साथ यह कुप्रथा ख़त्म होती चली गई. धार्मिक अनुष्ठानों में नरबलि की जगह पशुओं की बलि दी जाने लगी. आज नरबलि एक ब़डा अपराध है, जिसके लिए भारतीय सविधान में कठोर कानून भी है लेकिन दु:ख की बात तो यह है कि आज भी नरबलि के मामले सामने आ रहे हैं. आज के आधुनिक युग में जहां इंसान अंतरिक्ष की सैर कर रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग आखिर प्राचीन काल की इस बर्बरता से अभी तक बाहर नहीं निकल पाए क्यों?

राजीव चौधरी

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