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हम उनका नववर्ष क्यों मनाएं?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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किसी राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता वहां के मूल निवासियों के हाथ में होती है. वो खुद तय करते है किस संस्कृति का हिस्सा बने या अपनी संस्कृति का कितना फैलाव करे ? आमतौर पर नववर्ष का नाम आते ही १ जनवरी हमारे दिमाग में आता है यह जानते हुए भी की वो तारीख अंगेरजी कलेंडर के हिसाब से हम पर थोप दी गयी है. वरना हमारे हिंदी कलेंडर के हिसाब से उसमें कुछ भी नया नहीं है. लेकिन एक बहाव में हम बह जाते है. किसी भी राष्ट्र को उन्नति का उतुन्ग शिखर अवश्य स्पर्श करना चाहिए यह वहां के निवासियों का मूल अधिकार भी है. लेकिन अपनी संस्कृति और सभ्यता से समझोता करके नहीं. इससे हम आने वाली पीढ़ी के साथ एक छलावा कर जाते है क्योंकि जो  कुछ विरासत के  तौर पर हमें मिला वो हम अगली पीढ़ी को दे न पायें तो किस्म से हम संस्कृति के उपहास के कारक कहलायें जायेंगे. कल जब हम  बच्चों को  अगर माघ, पौष, फाल्गुन इत्यादि हिंदी महीनों के नाम बोले तो वो आपकी और अचरज भरी नजरों से देखेंगे जैसे आप किसी और ग्रह के प्राणी हो! पिछले वर्ष मुझे अक्टूबर में नेपाल अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन हिस्सा बनने का गौरव प्राप्त हुआ था. एक चीज जो हम खुद को हिन्दू राष्ट्र बनाने का दावा ठोकते है यहाँ के बजाय वहां नजर आयी. वो थी हमारी संस्कृति. वहां गाड़ियों की नम्बर प्लेट पर आपको हिंदी भाषा के अंक और शब्द शुद्ध देवनागरी लिपि में लिखे मिलेंगे. भले ही उस राष्ट्र को गरीब मुल्क समझा जाता हो किन्तु वो राष्ट्र संस्कृति के मामले में हमसे बहुत अधिक समर्ध है वहां सरकारी छुट्टी रविवार की बजाय शनिवार को होती है रविवार उनके यहाँ सप्ताह के शुरुवात का दिन है न की अंत का. भले ही हम अपनी राजनैतिक आजादी पाने में तो सफल रहे किन्तु सांस्कृतिक गुलामी में अभी भी हमे जकड़े हुए है.

आप सभी सोच रहे होंगे की यह सब तो अब हमारे प्रचलन का हिस्सा हैं इससे दूर कैसे जाया सकता है पढने सुनने तक तो यह बात अच्छी लगती है लेकिन इसे असल जीवन शैली में कैसे उतारे. लोग रूधिवादी विचार धारा का समझेंगे या कहेंगे कि ये चला संस्कृति बचाने. नहीं ऐसा नहीं है! जब हम गर्व के साथ अपनी संस्कृति को ऊपर उठाएंगे तो निश्चित ही हजार लोग आपके साथ खड़े होंगे. अभी हाल ही में होली के दो दिन बाद पढ़ रहा था कि पुरे यूरोप के साथ अमेरिका में इस वर्ष जगह-जगह आयोजन कर लोगों ने होली खेली. वहां कि मीडिया ने भी इस त्यौहार को हाथों हाथ लिया कारण वहां गये भारतियों ने अपने इस त्यौहार को गर्व के साथ उन लोगों के सामने रखा न की अपनी सोसायटी में इसे फालतू का त्यौहार कहा. जरा सोचिये अपनी संस्कृति और उसके वैज्ञानिक कारणों को अन्य के सामने रखेंगे तो निश्चित ही दूसरा प्रभाव में आयेगा.

एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है. इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया. भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया. अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया. 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी. भारत गुलाम था अंगेजों के मातहत कार्य करने वाले भारतीयों की मजबूरी थी कि इस नववर्ष का पालन करें. मातहतों अधिकारीयों के आदेश का पालन करने वाली भारतीय जनता धीरे धीरे इसे ही नववर्ष समझने लगी. जो आज ३१ दिसम्बर की रात को शराब और शबाब का एक त्यौहार बनकर रह गया आज का युवा इस कदर इसकी चपेट में है कि दिसम्बर माह में ही कार्यक्रम तैयार होने लगते है कैसे और कहाँ ३१ की रात धन और समय की बर्बादी करें

दो चीज होती है जिसका मैं बार-बार जिकर कर रहा हूँ एक संस्कृति और दूसरी सभ्य्यता इनमे थोडा भेद होता है संस्कृति का अर्थ होता है हमारे रीती-रिवाज, हमारी सामाजिक व पारिवारिक परम्पराएँ हमारे त्यौहार उन्हें मनाने का ढंग हमारी पूजा उपासना पद्धति. दूसरा हमारी सभ्यता इसके अंतर्ग्रत आता है हमारा रहन-सहन हमारा भवन निर्माण हमारा खान-पान हमारा पहनावा हमारी भाषा. अब जरा दो मिनट गौर से सोचिये क्या ये दोनों चींजे आज हमारे पास उसी असल रूप में जैसी हम चर्चा करते है? चलो मान लिया समय के साथ परिवर्तन होता हैं. सभ्यता में थोडा बहुत परिवर्तन आता है लेकिन इतना नहीं कि हम अपना सब कुछ एक बहाव में चैपट कर दे. इतिहास साक्षी है वो राष्ट्र कभी नहीं मरते जो अपनी मूल संस्कृति और सभ्यता बचा कर अगली पीढ़ी तक पहुंचाते है. आज इस विषय में एक बात और सोचनीय है कि हम हजारों साल की गुलामी के बाद भी आज अपने मूल धर्म में कैसे जिन्दा है? जो चीज हमारे पुरखों ने तलवार और बन्दुक के साये में नहीं गवाईं वो चीज हमने मात्र कुछ सालों में खुद को आधुनिक दिखाने में गवां दी.

इकत्तीस दिसम्बर के नजदीक आते ही जगह-जगह जश्न मनाने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं. होटल, रेस्तरॉ, पब इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के बैनर, होर्डिंग, पोस्टर व कार्डों के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है. कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाऐं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य मनुष्यों से तथा गाड़ियां गाडियों से भिडने लगते हैं.

हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्क्रतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं . जिसका न कोई धार्मिक और न ही वैज्ञानिक आधार है. किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिध्दांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है. इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है. इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है. इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं. और तो और, देश के बडे से बडे राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुध्द रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है. राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे हुए हैं. यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है जब यह नववर्ष प्रारम्भ होता है तो शरीर में रक्त बदलता है, बर्फ से जमी झील पिंघलने लगती है नदियों में नया पानी, वर्क्षों की शाखाओं पर नये पत्ते, पेड़ों पर नये फूल, यानि के सब कुछ नया होने लगता है बसंत का सुहावना मौसम होता है ! किसानों के चेहरे पर उल्लास होता है. भारत के सारे त्योहार का प्रकृति साथ देती है एक जनवरी वाले नव वर्ष में ऐसा कोई भी प्राकृतिक संदेश नहीं होता जिससे समाज को खुशी का अहसास होता हों या फिर उसमें प्रकृति में कोई बदलाव या नयापन हो…विनय आर्य सचिव आर्य समाज

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