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क्या बटवारे के अड्डे बन रहे है शिक्षण संस्थान?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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ज्यादा पुरानी बात नहीं है सब जानते हैं 1947 में  देश के बटवारे की नींव अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गयी थी। आज यह फसल जेएनयू में सिंचती नजर आ रही है जब  देश स्वतंत्र है एक लोकतान्त्रिक तरीकों से चुनी सरकार है तो कौनसी आजादी कैसी आजादी?  क्या संविधान में राष्ट्र विरोध के लिए कोई सजा का प्रावधान नहीं है? जो इस तरह खुलेआम अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर राजद्रोह हो रहा है। हम मानते है सविंधान में अभिवयक्ति की आजादी है पर उनके लिए जो सविंधान में विश्वास करते है भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखंडता का समर्थन और रक्षा करते है|

विद्यार्थी जीवन मानव जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय होता है। इस काल में विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन करता है अथवा जिन नैतिक मूल्यों को वह आत्मसात् करता है वही जीवन मूल्य उसके और किसी राष्ट्र के भविष्य निर्माण का आधार बनते हैं। लेकिन आज के इन शिक्षण संस्थाओं में देखें तो कुछेक छात्रों द्वारा बाकि के छात्रों के भविष्य को किसी मोमबत्ती की तरह दोनों ओर से आग लगाने का कार्य हो रहा है। फिर खबर है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से ऊपजी अस्थिरता के बाद अब डीयू में भी इस तरह की कोशिशें शुरू हो गई हैं। जेएनयू के बाद अब विचारधारा की लड़ाई डीयू तक पहुंच गई है। रामजस कॉलेज विवाद अब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले चुका है और इसको लेकर अब डीयू के शिक्षक भी लामबंद हो गए हैं। क्या ऐसे में कोई बता सकता है कि देश के लोगों की मेहनत के टैक्स से चलने वाले यह शिक्षण संस्थान शिक्षा के केंद्र हैं या राजनीति और देशविरोधी गतिविधियों के अड्डे?

हालाँकि डीयू में ऐसा पहली बार हुआ है कि छात्रों के बीच की लड़ाई शिक्षकों की लड़ाई बन गई है, क्योंकि इसमें एक तरफ जहां वामपंथी शिक्षक संघ डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के कई पदाधिकारी लोगों को आमंत्रित कर रहे हैं वहीं भाजपा समर्थित शिक्षक संघ नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट सहित राष्ट्रवादी शिक्षक संघ ने भी मोर्चा खोल दिया है। ऐसे में राष्ट्र के शुभचिंतकों के सामने प्रश्न यह उपजता है कि डीयू हो या जेएनयू या फिर अन्य शिक्षण संस्थान इसमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को वेतनमान किस कार्य के लिए दिया जाता है और पने वाले छात्रों को किस कार्य के लिए छात्रवृति प्रदान की जा रही है? यदि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने और उन्हें समर्थन करने के लिए तो फिर आतंकवाद, नक्सलवाद के अड्डों और इन शिक्षण संस्थानों में अंतर क्या है? आखिर क्यों कुछ चुनिन्दा छात्रों और अध्यापकों को इन शिक्षण संस्थानों से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा रहा है? क्यों इस संस्थानों में राष्ट्र के टुकड़े करने और बंटवारे का पाठ पढाया जा रहा है?

यदि सत्ता के शिखर बैठे लोग गलतियाँ करें तो विपक्ष को ईमानदारी से उन मुद्दों को उठाना चाहिए लेकिन देशद्रोह जैसे मुद्दों पर सरकार और विपक्ष एक मत होने के बजाय राजनीति करने लगे तो देश का दुर्भाग्य ही कहलाया जायेगा। हो सकता है सक्रिय राजनीति में जाने का रास्ता स्कूल-कालेज से होकर जाता हो लेकिन जरूरी है कि दायरे में रह विद्यार्थी जीवन में राजनीति करें, और यह राजनीति शिक्षा की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है  अतः जहाँ वह निवास करता है उसके आस-पास होने वाली घटनाओं के प्रभाव से वह स्वयं को अलग नहीं रख सकता है। उस राष्ट्र की राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक परिस्थितियाँ उसके जीवन पर प्रभाव डालती हैं। सामान्य तौर पर लोगों की यह धारणा है कि विद्यार्थी जीवन में राजनीति का समावेश नहीं होना चाहिए।

अक्सर देश के राजनेता देश-विदेश की क्रांतियों के उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राजनीतिक बदलाव के लिए जागरूक और पढ़े लिखे युवाओं को आगे आना होगा। उदहारण अपनी जगह सही भी है किन्तु यहाँ तो देश तोड़ने, बाँटने जैसे मुद्दे लेकर युवा आगे आ रहे हैं और विडम्बना देखिये देश के उच्च स्तर के राजनेता इन्हें इस कार्य के लिए नमन कर रहे हैं हम मानते हैं कि एक वक्त था, जब देश में राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, वीपी सिंह आदि ने राष्ट्र हितों का हवाला देकर छात्र शक्ति को जागृत किया था और लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण के साथ-साथ सत्ता परिवर्तन और खराब व्यवस्थाओं को बदलने का महत्वपूर्ण काम किया था लेकिन उनके लिए सर्वोच राष्ट्र हित था न कि आधुनिक छात्र नेताओं की तरह राष्ट्र विखंडन।

युवाओं को देश का भविष्य कहा जाता है। परन्तु जब वर्तमान में युवा ही दिशाहीन और दशाहीन होंगे तो देश का भविष्य कैसे सुधरेगा? ध्यान से देखने पर हम यह भी पाते हैं कि सोशल मीडिया के जरिये खुद को अभिव्यक्त करने वाली यह युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार जैसे स्थायी मुद्दों को लेकर नहीं, बल्कि देश की नींव को बर्बाद करने वाले मुद्दों को ज्यादा तरजीह देती नजर आ रही है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आज देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र नेता खुद अराजकता के प्रतीक बन गए हैं और वे स्थापित राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं। इस कारण विश्वविद्यालयों से बाहर आने पर उन्हें स्थापित दलों का चुनावी टिकट तो मिल जाता है, लेकिन उन्हें जनता का जरा भी समर्थन हासिल नहीं हो पाता है। जरूरत छात्रसंघों की राजनीति को रचनात्मक स्वरूप देने की है न कि उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथों कठपुतली बनने की। साफ है कि छात्रसंघ यदि सियासत के मोहरे बनना बंद कर दें तो वे देश और जनता के सामने एक नया एजेंडा और उम्मीद पेश कर सकते हैं और तभी उनके नेताओं को लेकर जनता के मन में कोई सम्मान और आस जग पाएगी। आज सरकार को देखना चाहिए कि यह आम छात्र है या खास जाति के लोग ऐसा कर रहे हैं या कुछ लोग उनको साधन बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं। ये तत्त्व कौन से हैं इनका उद्देश्य क्या है? ये घटनाएं  गंभीर हैं। इन पर सरकार को संज्ञान लेना आवश्यक है।

-विनय आर्य सचिव आर्य समाज

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