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यूरोप में पनपता राष्ट्रवाद

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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19 दिसम्बर की शाम को तुर्की में रूस के राजदूत अन्द्रेय कारलफ अंकारा नगर की समकालीन कलादीर्घा में गोली मारकर हत्या कर दी. दूसरा बर्लिन में एक व्यस्त क्रिसमस बाजार में एक लॉरी के घुस जाने से कम से कम 12 लोगों की मौत हो गई है और कई लोग घायल हुए हैं. इस घटना को जहाँ मीडिया मात्र एक लॉरी के घुस जाने तक ही सिमित रखकर दिखा रहा था वहां तारेक फतेह जैसे बुद्धिजीवी विचारक सवाल उठा रहे है कि इस घटना से एक बार फिर से इस्लामिक आतंक को क्यों बचाया जा रहा है? हालाँकि इस तरह की यह पहली घटना नहीं है इससे पहले भी फ्रांस के नीस शहर में बैस्टील डे के आयोजन में भीड़ पर एक ट्रक के घुस जाने से 70 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी. यूरोप में हो रही इन हत्याओं के पीछे किस का हाथ है सिर्फ यह कहकर या किसी एक संगठन को दोष देकर इन मामलों पर मिटटी नहीं डाली जा सकती. इस क्रम मैं दो बिन्दुओं के बारे में चर्चा करना चाहूँगा एक तो लगातार हो रही इन घटनाओं ने यूरोपीय वासियों के अन्दर राष्ट्रवाद जगाया दूसरा इन घटनायों ने काफी हद तक लोगों के अन्दर इस्लाम की एक हिंसक और नकारात्मक छवि पैदा की. जिस कारण पश्चिम का इस्लाम और यूरोप एक विचारधारा को लेकर आमने सामने खड़ा सा दिखाई दे रहा है.

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब 2012-13  में यह लग रहा था कि इस्लामवादी अपनी आन्तरिक विसंगतियों साम्प्रदायिक भेदभाव ( शिया, सुन्नी), राजनीतिक राजशाही,  रणनीतिक राजनीतिक, हिंसक विचारधारा या फिर आधुनिकता के प्रति सौतेले व्यवहार से मुक्त हो जायेंगे और बदले विश्व के सामाजिक सुधारों में परस्पर सहयोग करेंगे. लेकिन इसका उल्टा हुआ भारत से लेकर मध्य एशिया तक यदि किसी ने सुधारों की बात की चाहें उसमें कोई मुस्लिम विद्वान ही क्यों ना हो! उस सुधार और सुधारक को इस्लाम विरोधी ठहराकर बगल करने का प्रयास सा किया गया. इस कड़ी में एक चीज यदि और जोड़ दी जाये तो कोई अपराध नहीं होगा कि पश्चिम का इस्लाम और मुसलमानों के बारे में चर्चा करने, उनकी आलोचना करने और यहाँ तक कि उसे उसकी कमी बताने के अधिकार का भी क्षरण हुआ है. अभिवयक्ति की आजादी जैसे मौलिक अधिकार को भी यूरोपीय देशों में दफन करने की कोशिश की गयी जिसका सबसे बड़ा उदहारण फ्रांस की पत्रिका चार्ली हेब्दो के कार्यालय पर हमले के रूप में है. जिस कारण आज वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को गंभीर मुद्दा समझने वाले लोगों की संख्या करीब 70 फीसदी पर पहुँच गयी है.

पिछले डेढ़-दो दशकों से लगातार हो रहे आव्रजन और फ्रांस में हुए जेहादी उन्मादी प्रदर्शनों, से हतप्रभ अमेरिकियों और यूरोप को धीरे-धीरे ही सही ये डर हो गया था कि कहीं इस्लाम दुबारा जाग न उठे और उनके लिये सियासी खतरा न बन जाये और फिर कहीं यूरोप पर दुबारा हमलावर न हो जाये. और उनका संविधान इस्लामी संस्कृति और कानून के समक्ष समर्पण कर अपने ही राष्ट्रों में द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर न रह जाएँ. इसलिये पश्चिमी दुनिया ने बड़ी समझदारी से काम लिया और उन्होंने पहला काम ये किया कि इस्लामी दुनिया से कर्नल गद्दाफी, सद्दाम, तालिबान, बिन-लादेन जैसे चेहरों को सामने कर दिया जो बाकी दुनिया तो क्या खुद उनके अपने मुल्कों के लिये नफरत के पर्याय थे और सारी दुनिया को बताया कि इस्लाम का असली चेहरा तो यही है. इसका जितना लाभ यूरोपीय देशों और अमेरिकियों को मिला उतना ही इस्लामिक साम्राज्य को क्योंकि इन लोगों ने भी इन्हें ही हिंसा का जिम्मेदार बताकर मजहब विशेष पर आती आंच को बचा लिया.

पिछले कुछ सालों में अमेरिका यूरोप के देशों के अन्दर राष्ट्रवाद की अनोखी लहर सी चलती दिखाई दे रही है. जिसका मुख्य कारण यूरोप और इस्लाम के परस्पर टकराव है. संभावित जिहाद को लेकर आज यूरोप के लोगों को चुप रखना सरकारों को मुश्किल होता दिखाई दे रहा है. मामला चाहें जर्मनी में सीरियाई शरणार्थियों का हो या कोई जेहादी हमला वहां के नागरिक अपनी सरकारों की कार्यशैली पर सवालिया निशान उठाते दिख जायेंगे. सरकारी व्यवस्था को जिहाद की गंभीरता को समझने और उसका मुकाबला करने के लिए सलाह देते हुए भी लोग आसानी से मिल जायेंगे.

पश्चिम का इस्लाम और यूरोप एक बार फिर सांस्कृतिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा या एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता के पतन को लेकर एक भय का माहौल सा दिखाई दे रहा है. निश्चय ही अब हमारे समय का सबसे मह्त्वपूर्ण सवाल यह है, क्या पश्चिमी लोग अपनी ऐतिहासिक सभ्यता को इस्लामवादी आक्रमण के समक्ष बरकरार रख पायेंगे?  या फिर उस सभ्यता को स्वीकार कर लेंगे जिससे उनके पूर्वज लगातार जूझे थे? हम इसे आस्था और संस्कृति का युद्ध भी कह सकते है क्योंकि जब व्यक्ति ईश्वर में विश्वास करना छोड़ देता है तो ऐसा नहीं है कि वह किसी में विश्वास नहीं करता वरन् किसी में भी विश्वास करना आरम्भ कर देता है. इसी प्रकार एक ओर स्वदेशी ईसाइयों के मुकाबले मुसलमानो में जन्म दर काफी अधिक है. जिस कारण बदलते इस धार्मिक समीकरण से निर्णय का समय तेजी से निकट आ रहा है. अब जो भी हो अगले दशक या उससे कुछ अधिक समय में निर्णय के इस तट पर बैठा इतिहास भी शायद बाट जोह रहा होगा कि मेरे एक कोरे प्रष्ठ पर दोनों में से किस एक विजेता सभ्यता का नाम लिखा जाना बाकि है….विनय आर्य

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