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कश्मीर, राजनैतिक पार्टियों में लकीर

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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अलगाववादियों द्वारा कश्मीर घाटी में एक बार बंद का आहवान किया है. हर बार की तरह बंद के आहवान के कारण में वही कलुषित मानसिकता की झलक दिखाई दे रही जो पिछले तीन दशकों से घाटी को अशांत किये हुए है. इस बार बंटवारे के समय पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर जम्मू-कश्मीर आए परिवारों को आवास प्रमाणपत्र देने का मामला प्रदेश में तूल पकड़ रहा है. हाल ही में महबूबा मुफ्ती सरकार ने विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर जम्मू आए लोगों को आवास प्रमाणपत्र देने का ऐलान किया था. इस विवाद के कारण एक बार फिर प्रदेश सांप्रदायिक आधार पर बंट गया है. सरकार का कहना है कि इस फैसले का मकसद इन परिवारों को केंद्र सरकार की नौकरियों में आवेदन करने की योग्यता देना है. प्रदेश सरकार के पास ऐसे करीब 19,960 परिवारों का रेकॉर्ड है. सरकार का कहना है कि आवासीय सर्टिफिकेट की मदद से ये परिवार खुद को भारत का नागरिक दिखाकर नौकरियों व अन्य जरूरी फायदों के लिए आवेदन कर पाएंगे. इस मुद्दे को लेकर ना केवल कश्मीर और जम्मू के बीच, बल्कि इन दोनों की राजनैतिक पार्टियों के बीच भी लकीर खिंच गई है.

बुरहान वानी की मौत पर सवाल उठाने वाले कम्युनिष्ट और तथाकथित सेकुलर दल इस मामले से किनारा सा करते नजर आ रहे है. लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी ऐक्शन कमिटी के अध्यक्ष लाभ राम गांधी ने सरकार के फैसले का विरोध करने वालों की निंदा करते हुए कहा, “सरकार रोहिंग्या मुसलमानों का समर्थन करे, इससे किसी को परेशानी नहीं है, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को लेकर उन्हें दिक्कत क्यों?” क्या अलगाववादी राष्ट्रविरोधी हैं? क्या वह घाटी की तरह जम्मू को मुस्लिम बहुल क्षेत्र में बदलना चाहते हैं? आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में करीब 13,384 विदेशी भी रहते हैं. इनमें बर्मा से आये रोहिंग्या मुस्लिम भी शामिल हैं. दरअसल पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर आए शरणार्थियों को पहली बार किसी सरकार ने पहचान पत्र देने का फैसला किया है. यह लोग जम्मू-कश्मीर सरकार को पूरा हाउजिंग टैक्स भी देते हैं. इस सबके बावजूद भी इनके अस्तित्व पर सवाल उठाया जा रहा है क्यों ?

पिछले दिनों ही ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर तुफैल अहमद द्वारा सवालिया निशान लगाते हुए पूछा गया था कि हाल के महीनों में म्यांमार से आ रहे रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों और जम्मू-कश्मीर में क्यों बसाया जा रहा है? अनुमान है कि अभी करीब 36000 रोहिंग्या शरणार्थी असम, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं. कठिनाई के वक्त किसी व्यक्ति को भोजन और आश्रय उपलब्ध कराना इंसानी स्वभाव है. लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि भारत सरकार इन शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में ही क्यों बसा रही है, जहां इस्लाम और पाकिस्तान के कारण जिहादी प्रकृति का संघर्ष छिड़ा हुआ है? हिन्दू शरणार्थियों के इस मुद्दे पर सभी सरकारी और गैर सरकारी लोग इतने बैचेन क्यों दिखाई दे रहे है. दूसरी ओर म्यांमार की सरकार ने कहा कि रोहिंग्या मुस्लिमों और बौद्धों के बीच संघर्ष में जिहादी तत्व शामिल हैं. इस साल सशस्त्र रोहिंग्या मुस्लिम उग्रवादियों ने हमला कर हमारे करीब 17 जवानों की हत्या कर दी थी. जिसके जवाब में भारत सरकार को बर्मा में सर्जिकल स्ट्राइक करनी पड़ी थी 30 सितंबर, 2013 को जारी अपने बयान में अलकायदा के सरगना उस्ताद फारूक ने म्यांमार, थाईलैंड, श्रीलंका और भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाया था. इसे अलकायदा की लुक ईस्ट पॉलिसी कहा जा सकता है. फारूक ने दुस्साहसिक रूप से भारत सरकार को चेतावनी दी थी कि कश्मीर, गुजरात के बाद असम में हुई हिंसा का बदला लिया जाएगा. अब असम के मुस्लिमों में जिस कदर कट्टरता बढ़ रही है वह हमारी चिंताओं में लगातार इजाफा कर रही है

यदि इस प्रसंग में बात संयुक्त राष्ट्र के द्वारा दी गई शरणार्थी या अल्पसंख्यको की परिभाषा की करें तो मैं नहीं समझ पाता कि यह परिभाषा पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं पर लागू होती है या नहीं! लेकिन वे सरेआम उनको शरणार्थी मानने को तैयार नहीं हैं. लेकिन भारत का मानवीय द्रष्टिकोण या वोटबेंक का लालच राष्ट्र प्रथम की युक्ति से काफी ऊपर उठ चूका है. आखिर कोई भी दल या सरकार इन हिन्दू शरणार्थीयों के किसी भी सुख-दुख को समझने को तैयार क्यों नहीं है? जबकि मैं इससे भी आगे जाकर एक बात और कहना चाहता हूं कि पाकिस्तान के अंदर रहने वाले हिन्दू या वहां से आने वाले हिन्दू ये वो लोग हैं जो देश के विभाजन के समय हमारे नेतृत्व पर भरोसा करके वहां पर रह गये और वहां से कुछ वापिस आ गये थे. पाकिस्तान या बांग्लादेश से आये हिन्दू उपेक्षित है और उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है. जबकि वो लोग वहां से जान नहीं सिर्फ अपना धर्म बचाकर भाग आये है क्योंकि जान तो धर्म बदलकर भी बच सकती थी. आखिर कब सरकार इस तरफ ध्यान देगी? जब तक सरकार और देशवासी अपनी मौलिक सोच को नहीं बदलेंगे कि एक तुष्टिकरण के लिए, एक वोट-बैंक की राजनीति के लिए ही हम क्यों किसी खास वर्ग की चिंता करें?

पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थियों की बात हो या घाटी से विस्थापित पंडितों की  हमेशा यह सोचकर मामले को टाल दिया जाता है कि सारा मुसलमान तबका नाराज हो जाएगा. जबकि यह बात सच नहीं है. कुछ लोग होंगे और ऐसे लोग सब जगह होते हैं. जो हर जगह ऐसी सोच का प्रदर्शन करते है. जब तक राजनीति या राजनीतिक निर्णय इस तरह के दबाव में होते हैं तो वोट बैंक की राजनीति के परिणामस्वरूप उन लोगों की चिंता भी नहीं कर पाते जिनकी चिंता करना हमारा कर्तव्य है मानवाधिकार के नाते हमारी जिम्मेदारी बनती है हमारे नेतृत्व का भरोसा करके यदि वे आना चाहते हैं, उनकी चिंता करें. यदि इनकी और उनकी चिंता हम नहीं करेंगे तो उनकी चिंता कौन करेगा? हम उनकी नागरिकता की बात को उठाएं, यह हमारी जिम्मेदारी है. अगर हम इन विषयों को उठाएंगे तो अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी इसका संज्ञान लेंगे तभी इस समस्या का हल होगा. वरना यह कलुषित मानसिकता हमेशा नये खतरे पैदा करती रहेगी!!…राजीव चौधरी

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