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क्या जातीय समस्या धर्म का विषय है?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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भारत की कैथोलिक चर्च ने पहली बार आधिकारिक तौर पर माना है कि दलित ईसाइयों को छूआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ‘‘द इंडियन एक्सप्रेस’’ के मुताबिक ये जानकारी नीतिगत दस्तावेजों के जरिए सामने आई है। इसमें कहा गया है, ‘‘उच्च स्तर पर नेतृत्व में दलित ईसाइयों की सहभागिता न के बराबर है।’’ अखबार के मुताबिक ये दस्तावेज कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया में जारी किए गए। ये समुदाय की सर्वोच्च निर्णायक संस्था है। कहने को तो यह संस्था सामाजिक तौर पर पिछड़े लोगों से हर तरह से भेदभाव खत्म करने और उनके उत्थान के लिए प्रयास करती है। लेकिन इसका मूल उद्देश्य गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को ईसाइयत में परिवर्तन करना है। इस खबर को पढ़कर अब स्वामी श्रद्धानंद पुनः प्रासंगिक हो जाते हैं।

आज देश व सर्व मजहबो के मालिको को समझ जाना चाहिए कि जातीय समस्या धर्म का नहीं बल्कि समाज की एक बुराई का विषय है यह बुराई सामाजिक है तो हल धार्मिक कैसे? इस समस्या का समाधान किसी का धर्म परिवर्तन करना नहीं बल्कि स्वामी श्रद्धानंद जी के द्वारा जो आह्वान किया गया ठीक उसी तरह। सब जानते हैं कि डॉ. अम्बेडकर से दशकों पहले आर्य समाज ने दलितोद्धार का सन्देश दिया था। धार्मिक स्तर पर लोगों को जागरूक कर बताया कि वेद का सन्देश ईश्वर द्वारा ब्राह्मणों से लेकर शूद्रों सभी के लिए दिया गया है और सामाजिक स्तर पर भी उनके साथ भोज कर छुआछूत पर प्रहार किया। स्थान-स्थान पर विद्यालय और गुरुकुल खोले गये जिससे शिक्षा के माध्यम से समाज में उच्च स्थान प्राप्त हो सके, आत्म निर्भर बनाने के लिये उद्योग स्थापित किये गये, मंदिरों, सार्वजानिक कुओं में प्रवेश आरम्भ किया गया तथा सहभोज आरम्भ किये गये जिसमें दलित भाई के हाथ से ब्राह्मण भोज करते थे।

दरअसल छोटी-बड़ी जाति एक सोच है कि यह इन्सान छोटा या बड़ा, छूत-अछूत है। लेकिन इन लोगों द्वारा उनका धर्मपरिवर्तन कर इससे बाहर निकलने के लिए दूसरी समस्या खड़ी कर दी गयी। पहली समस्या सिर्फ भेदभाव तक सिमित थी किन्तु दूसरी समस्या संघर्ष खड़ा करती है और हिंसा की ओर अग्रसर करती है। अगर इतिहास उठाकर देखा जाए तो पता चलेगा कि मुख्यतः धर्म परिवर्तन के शिकार ज्यादातर वे ही लोग होते हैं जो गरीब अशिक्षित समुदाय और आदिवासी समुदायों से सम्बन्ध रखते हैं। आदिवासियों को बड़े स्तर पर इस धर्म से उस धर्म में खींचने का प्रयास चलता रहता है। ये संगठन इन लोगों पर मजहब तो थोप देते हैं लेकिन इन तबकों के सामाजिक और आर्थिक तरक्की की बात नहीं करते हैं न ही ये संगठन जातीय व्यवस्था के खात्मे की बात करते हैं। अफसोस इस बात का भी है कि बड़े-बड़े दलित नेता भी इस साम्प्रदायिक मुहीम के खिलाफ कुछ कारगर कदम नहीं उठाते हैं। क्योंकि इस मुहीम के पीछे एक राजनीतिक मंशा छिपी हुयी है यानी वोट की राजनीति के लिए कोई किसी को नाराज नहीं करना चाहता है। वरना उस समाज को उसी स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार के अवसर देकर उसे गले लगाकर सामाजिक उन्नति भी की जा सकती है। जातीय समस्या का हल मजहब बदलना नहीं है। इसका तो राजनैतिक हल होना चाहिए बेहतरीन शिक्षा बेहतर नागरिक मूल्य व्यापक रोजगार का सृजन यदि नहीं होगा तब तक राजनैतिक और धार्मिक शोषण बंद नहीं होगा.

किसी भी छिटपुट हिंसा के बाद अक्सर दलितों को बौद्ध, ईसाई या मुस्लिम बन जाने से मुक्ति मार्ग समझाया जाता है। दलितों के बौद्ध या ईसाई बनने से क्या होगा? कुछ नहीं, मंदिरों की जगह नये पगोडा-बौद्ध  मठ या चर्च बढ़ जायेंगे घंटी की जगह हाथ से घुमाने वाला झुनझुना होगा या गले में क्रॉस चिन्ह और मुंह में ऊं मनि पद्मे हुमष् मंत्र होगा। लेकिन  पुकारने का शब्द नहीं बदलता। अरे देखो ये वही है! बौद्ध, ईसाई के खोल में छुपा दलित! इसलिए फिर वही बात दोहराते हैं कि यह समस्या सामाजिक है इसमें धर्म का कोई हस्तक्षेप नहीं है। एक ही सम्प्रदाय में मस्जिदें अलग-अलग हैं, चर्चों में भेदभाव है। कैथोलिक बेपिस्ट को बिल्कुल पसंद नहीं करता और शिया-सुन्नी को.

जब-जब राष्ट्र और समाज पर विपदा आती है तो एक शिक्षक सबसे पहले जागता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी जानते थे अशिक्षा और गरीबी जहाँ होती है वहां बहुत जल्दी धर्म के ढोल बजबजाते हैं। स्वामी जी इन लोगों के धार्मिक षडयंत्र को समझ गये थे कि दलित पिछड़ों का धर्मांतरण कर रही मिशनरीज को किसी गरीब व दलित की बिल्कुल चिंता नहीं है  बल्कि इन्हें चिंता है अपने सम्प्रदाय की जिसकी संख्या ये लोग यहाँ बढ़ाकर राज करना चाहते हैं। २० मई सन १९२४ को मद्रास के गोखले हाल में मर्म स्पर्शी भाषण देते हुए स्वामी श्रद्धानन्द ने कहा था की, “पुरोहित आदि के अहंकार के कारण आपके यहा ब्राह्मण ब्राह्माणेतरो का झगड़ा तो चल ही रहा था की अब उससे भी अधिक बुरा एक झगड़ा आपके सामने खड़ा होने वाला हैं। यदि आपने अस्पृश्य कहे जानेवाले भाईयों के उद्धार की और विशेष ध्यान न दिया तो मैं आपको सचेत करता हूँ की वह दिन दूर नहीं , जब आपके दलित भाई जिन्हें आप पंचम कहते हैं, आप से सब तरह का सम्बन्ध तोड़ देंगे। यस तो सब के सब दूसरे सम्प्रदायों में चले जायेंगे अथवा अपनी जाति ही अलग बना लेगे। मैं स्वयं कमजोर,रोगी और वृद्ध होता हुआ सारे देश में घूम जाऊँगा।दलित भाईयों का संगठन करूँगा और उनसे कहूँगा की वे हर ब्राह्मण और अब्राह्मण को स्पर्श करके वैसा ही भ्रष्ट कर दे जैसा आप उनको मानते हैं। तब निश्चय ही आप उनके पैरों में माथा टेक देंगे। ” इस प्रकार की क्रन्तिकारी विचार रखने वाले स्वामी श्रद्धानंद के अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले लोगो के मुँह पर करारा तमाचा मारा था।...राजीव चौधरी

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