Menu
blogid : 23256 postid : 1276594

मौत का व्रत – आखिर जिम्मेदार कौन?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
  • 289 Posts
  • 64 Comments

हमारे देश में मीडिया और नेता हर एक मौत के जिम्मेदार को ढूंढ लेते है. लाशें सूंघकर मृतक का धर्म उसकी जाति और उसकी मौत का कारण खोज लेते है. कहीं धर्म तो कहीं व्यवस्था को दोषी ठहरा देते है. रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद मैंने मनुस्मृति को जलते देखा, अखलाक की हत्या पर अवार्ड लौटाते बुद्धिजीवी देखे. शहीद फौजी वीरसिंह को निचली जाति का होने कारण उसके अंतिम संस्कार के लिए 2 गज जमीन के लिए भटकते उसके परिजन देखे. टीपू सुल्तान और महाराणा प्रताप की जयंती के लिए झगड़ते नेता देखे पर आज एक 13 साल की जैन परिवार की एक बच्ची मौत पर या कहो धार्मिक मौत पर सबको खामोश देखा. क्यों जैन समुदाय की वोट कम है या उसकी मौत को कुप्रथा की भेंट नहीं मानते? आखिर समाज की परम्पराओं के लिए माता-पिता की इच्छाओं के लिए कब तक मासूमों को इन कुप्रथाओं के लिए अपनी जान कुर्बान करनी पड़ेगी? क्या ये सही था कि एक 13 साल कि मासूम लड़की को 68 दिनों का व्रत रखने की अनुमति दी गई? क्यों किसी ने उसको मना नहीं किया, क्यों लोग उसको सम्मान दे रहे थे? क्यों किसी ने इसका विरोध नहीं किया? क्या धार्मिक नेताओं जैन मुनियों को नहीं पता होता कि किस बात की अनुमति की जाए और किसकी नहीं. क्या कोई बता सकता है कि 13 वर्ष की इस बच्ची आराधना की मौत का जिम्मेदार कौन है?

अत्यंत कठिन तपस्या वाला व्रत रखने वाली छात्रा का नाम अराधना था. आंध्र प्रदेश में कक्षा आठ में पढ़ने वाली 13 वर्षीय छात्रा आराधना की 68 दिन का निर्जला व्रत पूरा करने के बाद मौत हो गई. आराधना जैन परिवार से थी. वह जैनियों के पवित्र समय चैमासा के दौरान व्रत शुरू किया था. व्रत पूरा होने के दो दिन बाद अराधना की तबीयत खराब हुई थी जिसके बाद उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था. घर वालों ने बताया कि हार्ट अटैक से किशोरी की मौत हो गई. बाल तपस्वनी के नाम से मशहूर हुई किशोरी की मौत के बाद उसके अंतिम संस्कार में सैकडो़ लोगों का हुजूम उमड़ा. अराधना की शव यात्रा में करीब 600 लोगों ने भाग लिया। इस यात्रा को शोभा यात्रा नाम दिया गया था. यानि के एक धार्मिक कुरूतियों की भेंट चढ़ी एक बच्ची की मौत पर जश्न मनाया जा रहा था. पुलिस के मुताबिक जैन समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मीचंद का शहर में गहनों का व्यवसाय है. जिसमें पिछले कुछ दिनों से घाटा चल रहा है. चेन्नई के किसी संत ने इसका समाधान बताते हुए लक्ष्मीकांत को कहा की यदि उनकी बेटी 68 दिनों का चातुर्मास व्रत रखे तो बिजनेस में मुनाफे के साथ उनका भाग्योदय भी हो जाएगा.

हमारे देश में धर्म के नाम पर न जाने ऐसी कितनी कुप्रथाएं आज भी अपने पैर जामये हुए हैं, जिनके बारे में अधिकतर लोगों को कुछ पता ही नहीं होता है. जैन समुदाय की सदस्य लता जैन का कहना है कि यह एक रस्म सी हो गई है कि लोग खाना और पानी त्यागकर खुद को तकलीफ पहुंचाते हैं. ऐसा करने वालों को धार्मिक गुरु और समुदाय वाले काफी सम्मानित भी करते हैं. उन्हें तोहफे दिए जाते हैं. लेकिन इस मामले में तो लड़की नाबालिग थी. मुझे इसी पर आपत्ति है. अगर यह हत्या नहीं तो आत्महत्या तो जरूर है. कि किशोरी को स्कूल छोड़कर व्रत पर बैठने की अनुमति क्यों दी गई.? सब जानते है इस प्रक्रिया को चैमासा वर्त या संथारा के नाम से जानते है. . भगवान महावीर के उपदेशानुसार जन्म की तरह मृत्यु को भी उत्सव का रूप दिया जा सकता है. संथारा लेने वाला व्यक्ति भी खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा, यही सोचकर संथारा लिया जाता है.

संथारे को जैन धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा बताया जाता है लेकिन आज तक ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया है जब किसी भी बड़े जैन मुनि ने अपना जीवन समाप्त करने के लिए संथारे का मार्ग अपनाया हो. यहां तक कि जैन धर्म के प्रमुख धार्मिक संत आचार्य तुलसी, जिनका 1997 में निधन हो गया था और न ही उनकी धार्मिक विरासत के वारिस आचार्य महाप्रज्ञ, जिनकी 2010 में मृत्यु हो गई थी, दोनों में से किसी ने भी स्वैच्छिक मौत यानि के संथारा का रास्ता नहीं चुना था, बल्कि दोनों धर्मगुरुओं की मृत्यु लंबी बीमारी के बाद हुई थी.

कुछ समय पहले राजस्थान हाईकोर्ट ने संथारा को भारतीय दंड संहिता 306 तथा 309 के तहत दंडनीय बताया था और इस प्रथा को आत्महत्या जैसा बताकर रोक लगा दी थी जिसके बाद जैन समुदाय सड़कों पर उतर गया था. 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जैन समुदाय को संथारा नामक धार्मिक परंपरा को जारी रखने की अनुमति दी थी. हालाँकि ऐसा नहीं है कि समस्त जैन समाज इसके पक्ष में था जबकि जैन समाज का एक बड़ा हिस्सा इसके विरोध में भी था किसी ने संथारा को अमानवीय एवं किसी ने धार्मिक परंपरा के नाम पर भूखे रहने को मजबूर किया जाना बताया था.

अब सवाल यह कि त्यौहार और परम्पराओ के नाम पर देश के ज्यादातर लोग धार्मिक हो जाते हैं तथा हिंसा से हर संभव बचने का प्रयास भी करते  हैं. जैन समुदाय के लोग अहिंसावादी भी बनते दिखाई दे जाते है पर इस तरह की भावनात्मक, शारीरिक, मानसिक, हिंसा में शामिल होते समय इनका विवेक कहाँ सो जाता है? क्या कुप्रथा बंद होने से धर्म को कोई हानि होती है? धर्मगुरुओं को आज सोचना होगा हर एक धर्मिक मामला चाहें वो संथारा हो या तीन तलाक, अथवा बली प्रथा हो या ज्यादा बच्चें पैदा करने को लेकर विवाद क्यों आज इन सब में न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है! जबकि समाज के अन्दर धर्म की एक सरंचनात्मक कार्य भूमिका होती है धर्म हमें समझाने के वैचारिक रूप देता है अन्य शब्दों में कहें तो धर्म हमे मानवीय अमानवीय द्रष्टिकोण पर चिंतन का ढांचा देता है जिससे समय के साथ मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देता है. धर्म की एक समाज के अन्दर एक बोद्धिक भूमिका होनी चाहिए न की परम्परागत तपस्या या उपवास रखने में किसी भी तरह की जोर जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए. यह एक त्रासदी है और हमें इससे सबक लेना चाहिए. इस मामले की पुलिस में शिकायत दर्ज की जानी चाहिए और बाल अधिकार आयोग को कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए. एक नाबालिग बच्ची से हम ऐसे किसी फैसले को लेने की उम्मीद नहीं कर सकते जो कि उसकी जिंदगी के लिए खतरा है. आखिर उसकी मौत का भी तो कोई जिम्मेदार होगा?..विनय आर्य सचिव आर्य समाज

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh