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सियासत की भी हो लाइन आफ कंट्रोल

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि देश के दुश्मनों को उनके घर में मात देने वाले वीरों के शोर्य पर अपने देश के नेता ही राजनैतिक लाभ के लिए प्रश्नचिंह उठा रहे है. यदि यह काम कोई दुश्मन देश करता तो समझ आता पर अपने देश के अन्दर गरिमामयी पदों पर विराजमान लोग ही ऐसा कर रहे है.यह बिलकुल समझ से परे है! क्या मैं इनकी तुलना जयचंद या मीरजाफर से कर सकता हूँ? यदि नहीं! “तो क्यों नहीं कर सकता?” यह सवाल भी अनिवार्य सवालों की पंक्ति में खड़ा है. नेताओ को जबाब देना चाहिए कि राजनीति बड़ी या देश? यदि पिछले कुछ सालों में देखा जाये तो राजनीति अपने मूल स्तर से काफी नीचे गिरती दिखाई दी न अब इसके मूल्य बचे न सिद्धांत.यदि कुछ बचा है तो सिर्फ आरोप प्रत्यारोप चाहें उसके लिए कितना भी नीचे क्यों न गिरना पड़े. पाक अधिकृत कश्मीर में सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक कर देश के दुश्मनों को खत्म करना अपने आप में अपने सैनिको द्वारा शोर्य की गाथा लिखना है. लेकिन उस गाथा पर व्यर्थ की बहस कहाँ तक जायज है?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जब राजनीति में प्रवेश करने वाले थे तब उन्होंने कहा था कि राजनीति में बहुत गंदगी है. गंदगी को साफ करने के लिए गटर में उतरना पड़ता है जी. उसे साफ करने के लिए इसमें उतर रहा हूँ , किन्तु अब उनकी पार्टी की राजनीति देखे तो लगता है जो गंदगी राजनीति में थी वो तो थी लेकिन यह तो उसे हाथ में लेकर भारत माता के आंचल पर भी फेंकने लगे है. नीति, सिद्धांत और विचारधारा किसी राजनैतिक दल की जमीनी जड़ होती है. इसके बाद प्रजातंत्र में चर्चा आलोचना होती है. पर इसका ये मतलब नहीं कि शत्रु राष्ट्र के समाचार पत्रों की सुर्खियों में नायक बन जाये. हो सके तो सविंधान में नेताओं के लिए भी “लाइन आफ कंट्रोल”  एक नियन्त्रण रेखा होनी चाहिए कि आप यहाँ तक बढ़ सकते है इससे आगे बढ़ना राष्ट्र के प्रति आपराधिक गद्दारी मानी जाएगी. जिसकी सजा आम नागरिक तरह ही भुगतना पड़ेगी. एक छोटा सा प्रसंग बताना चाहूँगा जब में छोटा था तो शाम को घर के बाहर चबूतरे पर गाँव के कई बुजुर्ग इकट्ठा होते और देश प्रदेश की राजनीति पर चर्चा आलोचना करते. एक दिन एक बुजुर्ग ने खड़े होकर कहा- कि “कहाँ है आजादी? गरीब को रोटी नहीं, किसान को उसकी फसल का उचित दाम नहीं, रोगी को दवाई नहीं, बच्चों को शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाएँ नहीं.” इसपर मैंने बीच में ही पूछ लिया – फिर आजादी का मतलब क्या है? तो उन्होंने कहा- “यही तो आजादी का मतलब है कि हम अपने यह मुद्दे सरकार के सामने शिष्टाचार के शब्दों में बे हिचक उठा लेते है.” किन्तु अब में देखता हूँ कि आजादी के नाम पर हमारे देश के नेता ही लोकतान्त्रिक मूल्यों पर राजनीति के बहाने हावी हो रहे है. शिष्टाचार और सुचिता पूर्ण शब्दों में अपनी बात रखना जैसे नेता भूल ही गये. कोई देश के प्रधानमंत्री को दरिंदा तो कोई मौत का सौदागर कह अपनी राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है. जैसे भूल ही गये हो कि देश पहले होना चाहिए और बाद में निजहित,  सरकार की आलोचना करने से पहले सोच लेना चाहिए कि कहीं आप देश की साख पर तो दाग नही लगा रहे है?  इस कड़ी में अरविन्द केजरीवाल, संजय निरुपम, और दिग्विजय समेत कई नेता सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार को कमजोर करने के बहाने देश के रक्षको के आत्मबल पर हमला कर रहे है. राहुल गाँधी ने तो सेना के बलिदान को खून की दलाली तक जोड़ डाला. जो बेहद शर्मनाक बयान है सरहद पर जवान है तो वो सुरक्षित है हम सुरक्षित है ये देश सुरक्षित है.

पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेई जी ने एक बार संसद में कहा था कि “सरकारे भी आती जाती रहेगी, पार्टी भी बनती बिगडती रहेगी, पर यह देश रहना चाहिए इसका लोकतंत्र रहना चाहिए.” भारत में अनेकों पार्टिया है जो विचारधाराओं में बंटी है, जो एक देश की एकता अखंडता के लिए जरूरी भी है. एक स्वस्थ लोकतंत्र की खुसबू भी यही है कि सबका संगम राष्ट्रहित है. पर कुछेक लोग जो धर्म के नाम पर हिंसा करते है मैं उन्हें धर्म और वो पार्टी जिसकी विचारधारा राष्ट्र हित में न हो उन्हें पार्टी नहीं मानता. ‘यह सिर्फ एक झुण्ड है, जो अपने निज हित के लिए समाज को गन्दा और देश को कमजोर कर रहे है.” राजनीति के नाम लेकर यह निर्लजता बंद होनी चाहिए. कहते है- जो जैसा होता है उसे सब कुछ ऐसा ही दिखाई देता है. यदि केजरीवाल को वीडियो फुटेज दिखा भी दे तो क्या गारंटी है कि वो उस पर सवाल न उठाये? और रहा पाकिस्तान का झूठ, तो वीडियो देखने की जरूरत नहीं बस  दोनों पाकिस्तानी शरीफों के चेहरे देख लीजिये. भारतीय सेना के दावे का सच सीमा पार राजनीतिक गलियारे में स्पष्ट दिखाई दे रहा है….विनय आर्य, सचिव आर्य समाज (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा)

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