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नारी, सम्मान और रोजगार की रक्षा के प्रति उच्च न्यायालय

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है. यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है. जिसमें चाहे सरकार शामिल हो, न्यायालय हो या हमारा समाज. अभी हाल ही में एक बार फिर देश की संस्कृतिक विरासत पर उच्च न्यायालय को हावी होते सभी ने देखा है. सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार में शराब परोसने पर पाबंदी, संबंधी महाराष्ट्र के नए कानून को असंगत और पूरी तरह से मनमाना करार दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह की  पाबंदी यह बताती है कि राज्य सरकार की सोच सदियों पुरानी है. अगर शराब न परोसी जाए तो बार लाइसेंस देने का क्या मतलब था. जबकि महाराष्ट्र सरकार के पक्षाकार का कहना है कि शराब पीना और परोसना हमारे मूल अधिकार नहीं है. ज्ञात हो महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने 2005 में डांस बार पर रोक लगा दी थी. क्योंकि ये सामाजिक बुराई का प्रतीक थे. उस समय इस गठबंधन सरकार के फैसले का व्यापक रूप से स्वागत हुआ था. और देखते ही देखते इस रोक की चपेट में ठाणे, नवी मुंबई, पुणे, रायगढ़ के डांस बार भी आ गए. गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस रोक की वजह से करीब 6 लाख महिलाएं बेरोजगार हो गई थीं. साल 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डांस बार से प्रतिबंध हटा दिया गया पर अगले वर्ष 2014 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा पुलिस अधिनियम में दोबारा इसे लागू करने के सम्बंध में नया प्रावधान लाया गया था. किन्तु  अक्टूबर 2015 में  सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में डांस बार पर लगी रोक को यह कहते हुए कि बार में डांस हो सकता है लेकिन किसी तरह की फूहड़ता नहीं. सशर्त हटाने का फैसला सुनाया था जिसके बाद डांस बार धडल्ले से चल निकले थे.

सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है. नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, ओलम्पिक में पदक जीतने वाली साक्षी मलिक या पीवीसंधू, हो. किन्तु इन्ही सब के बीच से निकलकर आई वो नारी भी है जिन्हें “बार बाला” बोला जाता है. गरीबी, भूख, बेरोजगारी या मजबूरी इन्हें खींच लाती है इन अमीरों की ऐशगाह में. जहाँ उन्हें कुछ छोटी मोटी रकम के लिए कम से कम कपडें पहनकर जिस्म की नुमाइश के बदले पैसे मिलते है. जब महाराष्ट्र सरकार ने इसे हमारी संस्कृति के खिलाफ है, अश्लीलता बताकर बंद करने का आदेश दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर आदेश निरस्त कर दिया कि ये अश्लीलता नहीं बल्कि उनकी कला है. अगर इन बार में अपनी कला का प्रदर्शन कर रही है तो उसे गलत नहीं कहा जाना चाहिए.

मामला यही रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. पीठ ने डांस बार में सीसीटीवी कैमरे लगाने की अनिवार्यता पर भी सवाल उठाए. जवाब में सरकार के वरिष्ठ वकील ने कहा कि अगर डांस बार में कुछ गलत होता है तो सीसीटीवी फुटेज से पुलिस को जांच में मदद मिलेगी. मगर कुछ लोग इस फैसले से खुश नहीं हैं क्योंकि वो कहते हैं सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने का फैसला आम आदमी की निजता में दखलंदाजी है. और यह तर्क सामने रखे कि यह सब हमारी संस्कृति का हिस्सा है हमारी संस्कृति के अनुसार दरबार में महिलाएं डांस करती थीं और उस दरबार में शराब भी परोसी जाती थी. अगर उनके डांस का ही सवाल है, तो आज से नहीं बल्कि पिछले कई सैंकड़ों सालों से महिलाएं पुरूषों या भीड़ के सामने डांस कर रही हैं. यहां तक कि भगवान इंद्र के युग से लेकर राजा-महाराजों के दरबार में महिलाओं की ओर से डांस किया जाता था. बहरहाल इतना कहा जा सकता है कि अभी हमारे देश का पतन और अधिक होता दिखाई दे रहा है. दरअसल जब कभी पौराणिको ने काल्पनिक इंद्र और उसकी सभा में नाचती नर्तकी का उल्लेख कर इस झूठ को सत्य का रूप दिया होगा उन्होंने खुद नहीं सोचा होगा कि इनके इस झूठ की कीमत नारी जाति को हमेशा चुकानी पड़ेगी. अक्सर हमारी सरकारे एक ओर तो नारी को शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर उसे महिमामंडित करती है, जगह-जगह लोग नारी जागृति, नारी सम्मान की बात करते हें. बडे अधिकारी, नेतागण, अन्य सभी बुद्धिजीवी लोग सभाओं, गोष्ठियों एवं छोटे-बड़े मंचो पर नारी के समान अधिकार, महिला उत्पीडन के मुद्‌दों पर लच्छेदार भाषण झाडते हैं, लेकिन दूसरी ओर असल जीवन में इस पुरुष प्रधान समाज का नारी के प्रति वास्तविक नजरिया कुछ और ही होता है.

समझने को काफी है कि एक बार डांसर का जीवन 16 वर्ष की उम्र से शुरू होता है. जैसे-जैसे उम्र ढलती है, इन्हें कोई नहीं पूछता. बाद की जिन्दगी बेहद तकलीफदेह बन कर रह जाती है क्योंकि इनकी कीमत इनके चेहरे से लगाई जाती है. ज्यादा उम्र वाली औरतों का बार में कोई काम नहीं रहता इसके बाद अधिकांश को देहव्यापार की मंडी का रुख करना पड़ता है. जो एक बार इस दुनिया में आ गई तो समझो यहाँ से बाहर जाने के सारे रास्ते बंद हैं. इनकी जिन्दगी बार की चकाचैंध से शुरू जरूर होती है मगर इसका अंत जिस्म फरोशी की बदनाम काली गलियों में जाकर होता है. वो सिर्फ एक ऐसी देह बनकर रह जाती है जिसे भोगने को तो अधिकांश तैयार हो जायेंगे परन्तु अपनाने को कोई नही.! अक्सर सांस्कृतिक संध्या तो कहीं संस्कृतिक कार्यक्रमो के नाम पर, थानों में, नेताओं के जन्मदिन और पार्टियों में  समाचार पत्रों में अश्लील नृत्य की खबरें प्रसारित होती रहती है. जिनकी मीडिया से लेकर राजनैतिक गलियारों में निंदा होती देखी जा सकती है. पर कभी कोई कार्रवाही नहीं होती दिखती, सरकार महिला रोजगार की बात तो करती दिख जाती है किन्तु बार बालाओं के मामले में उनके स्थाई रोजगार के लिए कोई योजना सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सुझाई नहीं जाती. उलटा इस बार तो सुप्रीम कोर्ट ही महिलाओं के हक महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान से जुड़े कानून की अवहेलना सा करता नजर आ रहा है. क्या सुप्रीम कोर्ट यह भी तय कट बता सकता है कि बार डांसर महिलाएं है या नहीं है? यदि है तो फिर उनके सम्मान और रोजगार की रक्षा के प्रति उच्च न्यायालय प्रतिबद्ध क्यों नहीं? rajeev choudhary

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