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इंडिया मुक्त भारत!!

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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हमारा देश 1947 में स्वतंत्र हुआ था. किन्तु सही अर्थो में हम आज भी पराधीन है. भाषा के पराधीन. मुगलों और अंग्रेजो की भाषा के पराधीन. हमारे तहसील और थाने अभी भी इन भाषाओं से स्वतंत्र नहीं है एक चार्जशीट से लेकर भूमि के रजिस्ट्रेशन तक में उर्दू भाषा अभी भी यहाँ विराजमान है. तो वहीं हिंदी  संवैधानिक  मान्यता प्राप्त  मात्र भाषा व्यवहार में है। देश में एक नहीं दो  राजभाषाएँ हैं। अंग्रेजी वास्तव में दूसरी सहभाषा हो कर भी सत्ता के सभी केंद्रों  पर राज  कर  रही है। दूसरी ओर हिंदी प्रथम संवैधानिक राजभाषा के पद पर होते हुए भी मात्र कागज पर है। मतलब आज हिदी अँग्रेजी के अनुवाद की भाषा बनकर रह गयी है। दुनिया में ऐसी सोचनीय स्थिति किसी भाषा की नहीं होगी। देश की भाषा अपने पद से अधिकार से वंचित है। विदेशी भाषा  का  प्रभुत्व  देश की सत्ता पर, राजकाज  पर, शिक्षा, न्याय, मीडिया, व्यापार, उद्योग, उच्च वर्ग जो मुश्किल से चार प्रतिशत है, उसके आम व्यवहार में है। जिस कारण हिंदी प्रसांगिक बनकर रह गयी. हिंदी वस्तुत: फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हिन्दी का या हिंद से सम्बन्धित। हिन्दी शब्द की उत्पत्ति सिन्धु -सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में स को ह बोला जाता है। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा । इसी हिंदी से हिन्दी शब्द बना। आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है,वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की आत्मिक भाषा थी।

2 फरवरी 1865 के दिन लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में जो कहा था,  मैंने पूरे भारत कोने-कोने में भ्रमण कर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धता, शिष्टता और लोगों में इतनी  अधिक क्षमता देखी है कि मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम इस देश पर तब तक राज कर पायेंगे, जब तक कि हम इस देश की रीड़ की हड्डी को ही न तोड़ दें, जो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति निहित है। अत: मेरा यह प्रस्ताव है कि हम उनकी पुरानी तथा प्राचीन शिक्षा प्रंणाली को बदल दें। यदि ये  भारतीय सोचने  लगे कि  विदेशी और अँग्रेजी  ही श्रेष्ठ है और हमारी संस्कृति से उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मान, अपनी  पहचान तथा अपनी  संस्कृति को ही खो देंगे और तब वे वह बन जायेंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अर्थ में एक गुलाम देश. मेकाले का कथन वह बताता है कि स्वाधीनता के सत्तर वर्ष हो जाने पर भी अपनी भाषाओं और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में हमारी मानसिकता अब भी अँग्रेजी और अँग्रेजियत से मुक्त से मुक्त नहीं है। राष्ट्र स्वाधीन है, परंतु राष्ट्र की अपनी राष्ट्र भाषा तक नहीं है। शिक्षा, न्याय, प्रशासन और जीवन के हर क्षेत्र में अँग्रेजी भाषा का प्रभुत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। अब हमें यह सत्य स्वीकार करना है कि हमने अँग्रेजी को ही माध्यम माना लेकिन समझा नहीं कि माध्यम ही संदेश होता है। अँग्रेजी से चिपके रहे और अब अँग्रेजी भाषी देशों के अंध भक्त हैं। फ्राँस और जर्मनी पश्चिमी होते हुए भी अँग्रेजी से विज्ञान नहीं सीखते। पूर्व का जापान, जापानी में ही विज्ञान की पढ़ाई करता है। रूस भी विज्ञान की पढ़ाई अपनी भाषा रसियन  के माध्यम से करता है। परंतु हमारी धारणा है कि विज्ञान और तकनीक को अँग्रेजी में ही सीखा और विकसित किया जा सकता है, भारत की किसी भी भाषा में नहीं सीखा जा सकता है। हमें समझने ही नहीं दिया गया कि भाषा सिर्फ माध्यम नहीं है, वह हमारी जीवन पद्धति भी है और उसे अभिव्यक्त करने का साधन भी है। वह हमारी संस्कृति और सभ्यता का सार है। उसे त्याग कर हम कोई भी मौलिक काम कभी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य भाषाऐं सीख कर उनमें कुशल कारीगर तो हो सकते हैं किंतु उनसे मौलिक सृजन नहीं कर सकते हैं। मौलिकता और सृजन का सीधा संबंध हमारी जीवन पद्धति को अपने वास्तविक रूप में पूरी तरह से खुल कर अभिव्यक्त करने से है। यह अभिव्यक्ति सिर्फ अपनी भाषा में ही कर सकते हैं। बीसवीं सदी में रूस और जापान विज्ञान में ब्रिटेन और अमेरिका से आगे नहीं थे। आज उपभोक्ता वस्तुओं और तकनीक में जापान इन सबसे आगे है। सामरिक विज्ञान और अंतरिक्ष की खोज में रूस किसी से कम नहीं है। दोनों देशों में विज्ञान और तकनीक में अपनी जीवन पद्धतियों को नहीं बदला। इन देशों ने सार्वभौम विज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखा और तकनीक को अपने देश की भाषाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया। लेकिन हमने अपनी मान्यता बना रखी है कि विज्ञान और आधुनिकता अँग्रेजी भाषा से सीखी और लायी जा सकती है। अंग्रेज भाषा में साहित्य रचने वाले भारतीयों के लेखन में मौलिकता का अभाव होता है। इस कारण वे अँग्रेजी साहित्य में सही जगह नहीं पा रहे हैं। यही हालत अँग्रेजी से डॉक्टर, इंजीनियर या तकनीक सीखने वालों की है। अँग्रेजी हमें किसी क्षेत्र में आगे नही बढ़ने देगी। हम उसके अंध बन कर ही रह सकते हैं। असली सवाल हिंदी या भारतीय भाषाओं का है ही नहीं, अपितु भारत का अपने साक्षात्कार के माध्यम से भारत होने का है। “इंडिया” से मुक्त होना होगा। जब तक हम अँग्रेजी से अपनी समस्याओं के ताले खोलने की कोशिश करेंगे, तब तक हम विषमता, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी और हर व्यक्ति को सच्ची स्वाधीनता दे नहीं सकेंगे और नही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे। भारत के भविष्य का निर्माण हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को अपना कर ही किया जा सकता है। हमें पता लगाना होगा कि भारत की भाषाओं में कहाँ-कहाँ पर कितने युवाओं ने इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीक के लिए संघर्ष किया है। अँग्रेजी भाषा से मुक्ति के लिए अपनी भाषाओं को अंगीकार किया है। इनका यशोगान हिंदी वालों को अवश्य करना चाहिए। हमारा लक्ष्य अँग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के ख़िलाफ भारतीय भाषाओं को सम्मान देने का होना चाहिए, तभी इंडिया मुक्त भारत हो सकता है| लेख राजीव चौधरी

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