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आखिर किसका गुलाम है, कश्मीर?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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क्या कश्मीर गुलाम है, गुलाम है तो किसका है? यह प्रश्न मैदानी धरा से लेकर पहाड़ की चोटियों तक गूंज रहा है| किन्तु इसका सही उत्तर कोई नहीं बता रहा कि कश्मीर तो आजाद है किन्तु मानसिकता गुलाम है, मजहबी मानसिकता की गुलाम है, अलगाववादी नेताओं की राजनेतिक महत्वकांक्षओं का गुलाम है, हर रोज की हिंसक प्रदर्शनों का गुलाम है इस्लाम की शिक्षाओं के गलत अर्थ का गुलाम है  वरना तो मिलिए, सीखिए कुपवाड़ा के निवासी शाह फैसल से जिसने साल 2010 में आईएएस की परीक्षा में टॉपर बने थे| या फिर पहले एमबीबीएस फिर IPS और अब IAS पास करने वाली लड़की रूवैदा सलाम से क्या कश्मीर  गुलाम है ? कश्मीरी युवा बुरहान के बजाय इन नौजवानों से प्रेरणा नहीं ले सकता? लेकिन नहीं युवाओं के हाथ में जेहादी नेताओ द्वारा दीन का नारा थमा दिया झूठी आजादी का सपना दे दिया| कोई बताये तो सही कश्मीर में क्या नहीं है? लोकतंत्र है, समानता का अधिकार है, समाजवाद है, स्थानीय लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है| क्या नहीं है? यदि इन सबके बावजूद भी यदि कश्मीर गुलाम है तो फिर मेरा मानना है कि कश्मीर पाकिस्तान की कलुषित मानसिकता का गुलाम है|

अब यदि कुछ लोगों के बहकावे में कश्मीरी सेना को हटाने के बात करे तो स्मरण रहे सेना वहां सीमओं की रक्षा के लिए भी है| यदि भारतीय सेना ना होती तो आज कश्मीर का अवाम पाकिस्तान या चीन के कब्जे में होता| भले ही उनके हाथ में इस्लाम का भुला भटका निजाम होता किन्तु कश्मीरी के पास कश्मीर का कुछ ना होता| गर्दन पर सर तो होता किन्तु वो सर पाक अधिकृत कश्मीर के अवाम की तरह पाकिस्तान या चीन की ठोकरों में होता है| लगता है कश्मीरी नौजवान आज मात्र कुछ पाक परस्त लोगो की जिद को हजारों अपनी अस्मिता का प्रश्न बना बैठा है| लेकिन वो सीख सकता है पंजाब से वरिष्ट इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने बहुत पहले लिखा था कि अस्सी के दशक में पंजाब से आने वाली खबरें भी इतनी मनहूसियत से भरी होती थी कि ऐसा लगता था कि सरकार और लोगों के बीच की ये जंग कभी खत्म नहीं होगी या फिर सिखों के अलग देश खालिस्तान के बनने के बाद ही इसका अंत होगा। लेकिन आखिरकार ये हिंसा की आग मंद पड़ी और वक्त के साथ बुझ भी गई।

सत्तर और अस्सी के दशक में इसी मानसिकता का गुलाम पंजाब था कुछेक सिखों द्वारा अलग देश खालिस्तान बनाने की मांग चरम पर थी जिसकी वजह से कई नौजवान आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़े थे। कुछ सिख समुदाय इस कुंठा से भर आया था कि आजादी के बाद हिन्दू को हिंदुस्तान मिला मुस्लिम को पाकिस्तान पर हमे क्या मिला! पंजाब की सड़के दिन दहाड़े हिंसा का सबब बनने लगी थी| पंजाब की मिटटी से सोंधी खुसबू की जगह बारूद की गंद आने लगी थी| कुछ ही वर्ष पहले 1971 में जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हो कर नया राष्ट्र बना था तो पाकिस्तानी सियासत का विचार था की यदि पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हुआ है तो भारत से भी कुछ अलग होना ज़रूरी है नतीज़न साजिश रची गयी की खालसा पंथ वालों को समर्थन दिया जाये और भारत से पंजाब को अलग कर एक राष्ट्र खालिस्तान खड़ा किया जाये| जिसके लिए अलगाववादी नेता जरनेल सिंह भिंडरावाला को चुना गया इसी विचार से बड़ी संख्या में धन जुटाया गया और पंजाब की सड़कों पर रक्तपात शुरू करा दिया| बिलकुल ऐसे जैसे आज कश्मीर का हाल है| लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की सोच प्रबल थी कि जैसे भी आतंक का सफाया करना है| सरकार के कंधे ने सेना की बन्दुक का मजबूती से साथ दिया नतीजा भिंडरावाला और उसके मारे गये| पंजाबियों ने सांप्रदायिक मतभेदों को अलग करके अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने पर जो़र दिया। जिसका परिणाम जल्द ही पंजाब एक समर्द्ध राज्यों में खड़ा हो गया|

आज कश्मीर की समस्या भी बिलकुल ऐसी है, यानि के धर्म के नाम पर अलग देश किन्तु कश्मीरी यह क्यों भूल जाते है कि खुनी संघर्ष हमेशा लहुलुहान सवालों की बरसात करता है| जैसे प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है बुरहान वानी एक आतंकवादी था, उसे बड़ा नेता न बनाया जाए उसे आतंकी के तौर पर ही देखा जाए| लेकिन अलगावादी नेता और पाकिस्तान के आतंकवादी से लेकर हुक्मरान तक बुरहान को शहीद बताकर नायक के रूप में पेश कर रहे है, ताकि आतंक के नाम पर युवाओं को आतंक से जोड़ा जा सके| इससे साफ जाहिर है कश्मीर में भी हिंसा बिलकुल पंजाब की तरह पाक प्रयोजित है| अब इससे निपटने के लिए क्यों ना पंजाब की तरह रास्ता निकाला जाये| इतिहास गवाह है महाभारत में विदुर ने कहा था बेशक कुछ चीखें सुनकर यदि शांति की स्थापना के होती हो तो वो चींख सुन लीजिये| जब पंजाब के अलगाववादी नेता जरनेल सिंह व् उसके साथियों को पंजाब की अशांति के दोषी मानकर सेना उन्हें मार गिरा सकती है तो कश्मीर की शांत फिजा में जहर घोलकर हर रोज घाटी को अशांत करने वाले नेताओं के साथ ऐसा व्यवहार क्यों नहीं? हर एक आतंकी के जनाजे का तमाशा अपने राजनितिक हित के लिए उठाने वाले नेता सेना की कारवाही पर धर्मिक पक्षपात का आरोप लगाने वाली कुछ मीडिया कभी यह क्यों नहीं सोचती कि सेना के संस्कारो में धर्म के बजाय राष्ट्रधर्म होता है| कश्मीर का एक स्थानीय अख़बार ग्रेटर कश्मीर’ ने अपने संपादकीय में लिखता है, “ये आश्चर्य की बात है कि अगर इसी तरह के प्रदर्शन भारत के दूसरे हिस्सों में होते हैं तो उनसे पेशेवर तरीके से निपटा जाता है और किसी की मौत नहीं होती जैसी (कश्मीर) घाटी में होती है|” बिलकुल गलत और तथ्यहीन आरोप है कुछ माह पहले की मीडिया रिपोर्ट उठा लीजिये मांग के बहाने हिंसा को रोकने के लिए हरियाणा में भी हिंसक भीड़ में 28 लोग मारे गये थे| तो फिर कश्मीर में सेना की कारवाही पर बवाल क्यों? दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख राजीव चौधरी

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