- 289 Posts
- 64 Comments
कहने का मूल तात्पर्य यह है की कोई बड़ा काम करो और उसका हल कुछ ना निकले इसी का एक जिन्दा उदहारण फ्रांस की राजधानी पेरिस में देखने को मिला पृथ्वीके बढ़ते तापामन और जलवायु परिवर्तन के मसले पर पेरिस में आयोजित संयुक्तराष्ट्र जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते की हर ओर तारीफ हो रही और इसेऐतिहासिक समझौता करार करार दिया है। धरती के बढ़ते तापमान और कार्बनउत्सर्जन पर अंकुश लगाने वाले इस समझौते को 196 देशों ने स्वीकार किया है। प्रधानमंत्री जी ने अपने 39 पन्ने के मसौदे को जिस तरह यजुर्वेद के मन्त्र से समझाने की कोशिस की वो वाकई स्वागत योग्य होने साथ सत्य भी है कि बिना वेदों को जाने प्रकृति को जानना समझना असम्भव है|
इस समझौते के अनुसार,वैश्विक तापमान की सीमा दो डिग्री सेल्सियस से ‘काफीकम’रखने प्रस्ताव है। इस सब को देखकर सुनकर लगा कि जैसे आज इन्सान और प्रकृति की मानो कोई प्रतियोगिता हो और इन्सान हर हाल में प्रकृति से जीतना चाह रहा हो किन्तु प्रकृति और मानव के इस युद्ध में अंततः यह बात हर कोई जानता है कि जीत अंत में प्रक्रति की होगी तो क्यों प्रकृति से नाहक बैर मोल लिया जाये| आज दो डिग्री पर जिस तरह पूरा विश्व समुदाय एकत्र हुआ वैसे देखा जाये तो तापमान वृद्धि पर अंकुश की यह बात भारत और चीन जैसेविकासशील देशों की पसंद के अनुरूप नहीं है,जो औद्योगिकीकरण के कारण कार्बनगैसों के बड़े उत्सर्जक हैं। लेकिन भारत ने शिखर बैठक के इन नतीजों को ‘संतुलित’और आगे का रास्ता दिखाने वाला बताया।
इससमझौते में सबको अलग-अलग जिम्मेदारी‘ के सिद्धांत को जगह दी गई है, जिसकी भारत लंबे अर्से से मांग करता रहा है। जबकि अमेरिका और दूसरे विकसितदेश इस प्रावधान को कमजोर करना चाहते थे। पेरिससमझौते में कहा गया है कि सभी पक्ष, जिसमें विकासशील देश भी शामिल हैं-कार्बन उत्सर्जन कम करने के कदम उठाये। इसका अर्थ हुआ कि विकासशील देशों कोइसके लिए कदम उठाने होंगे, जो कि विकास के उनके सपने में एक रोड़ा साबितहो सकता है। और विकसित देशों ने चालाकी दिखाते हुए पर्यावरण को स्वस्थ रखने में अपनी जिम्मेदारी में कटोती कर सारी जिम्मेदारी विकासशील देशों के कंधो पर डाल दी| और उन्होंने अपनी तरफ से कह दिया कि किसी भी क्षति और घाटे के लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे न किसी हम पर किसी मुआवजे आदि का (विकसित देशों) पर कोई वास्तविक दायित्व भी नहीं होगा। अगर कहा जाये जलवायु सम्मेलन एक किस्म से एक व्यापारिक सम्मेलन था बड़े देश छोटे-छोटे देशो से पैसा वसूल करेंगे| क्योंकि विकसित आज आर्थिक रूप से और औधोगिक रूप सक्षम है| किन्तु जैसे ही विकासशील देशों ने उद्योगों के जरिये अपने विकास का रास्ता खोजा तो ही विकसित देश जलवायु परिवर्तन का नगाड़ा बजा बैठे| हालाँकि जलवायु परिवर्तन है सच में ही एक विचारणीय विषय है पर क्या जहरीली गैसों के लिए विकासशील देश ही जिम्मेदार है|
आज जिस तरीके से समस्त विश्व विकास के लिए तड़फ रहा है किन्तु यह एक बात क्यूँ नहीं सोच रहा है कि विकास मानव समुदाय के लिए किया जा रहा और विकास से उत्पन्न बीमारी भी मनुष्य समाज को खा रही है क्या बिना रासायनिक विकास के जीवन नहीं जिया जा सकता?
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
Rajeev choudhary
Read Comments