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हमारा इतिहास आज भी परतंत्र है?

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
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आज स्वतंत्र भारत होते हुए भी भारतीय इतिहासकार मूलत विदेशी इतिहासकारों और मुग़लों के वेतनभोगी इतिहास लेखकों का अनुसरण करते दीखते हैं। इसी कड़ी में अपनी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए बाजीराव मस्तानी फ़िल्म के माध्यम से मराठा शक्ति के उद्भव और बाजीराव की वीरता से चिढ़ कर अपनी दकियानूसी मानसिकता का परिचय देते हुआ “Times of India” अख़बार में आकार पटेल नामक लेखक का दिनांक 20 दिसंबर 2015 को “Bajirao the great Hindu nationalist — That’s only in the movies” के नाम से लेख छपा। इस लेख में वीर मराठा सरदारों को लुटेरा, लोभी, लालची, अत्याचारी, हत्यारे आदि लिखा गया हैं। सत्य एक ही होता हैं। उसे देखने के नजरियें का निष्पक्ष होना आवश्यक हैं। उदित होती मराठा शक्ति और परास्त होती मुग़ल ताकत को मुस्लिम वेतन भोगी लेखक कैसे सहन कर सकते थे? मुग़लों के टुकड़ों पर पर पलने वालों के लिए तो हिन्दू मराठा लुटेरे और बाबर-तैमूर के वंशज शांतिप्रिय और न्यायप्रिय स्वदेशी शासक ही रहेंगे। यही मानदंड अंग्रेज इतिहासकारों पर भी लागु होता है क्यूंकि मध्य एवं उत्तर भारत में मराठा कई दशकों तक अंग्रेजों को भारत का शासक बनने से रोकते रहे थे। एक प्रश्न उठता हैं की इतिहास के इस लंबे 100 वर्ष के समय में भारत के असली शासक कौन थे? शक्तिहीन मुग़ल तो दिल्ली के नाममात्र के शासक थे परन्तु उस काल का अगर कोई असली शासक था, तो वह थे मराठे। शिवाजी महाराज द्वारा देश,धर्म और जाति की रक्षा के लिए जो अग्नि महाराष्ट्र से प्रज्जल्वित हुई थी उसकी सीमाएँ महाराष्ट्र के बाहर फैल कर देश की सीमाओं तक पहुँच गई थी। इतिहास के सबसे रोचक इस स्वर्णिम सत्य को देखिये की जिस मतान्ध औरंगजेब ने वीर शिवाजी महाराज को पहाड़ी चूहा कहता था उन्ही शिवाजी के वंशजों को उसी औरंगजेब के वंशजों ने “महाराजधिराज “और “वज़ीरे मुतालिक” के पद से सुशोभित किया था। जिस सिंध नदी के तट पर आखिरी हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान के घोड़े पहुँचे थे उसी सिंध नदी पर कई शताब्दियों के बाद अगर भगवा ध्वज लेकर कोई पहुँचा तो वह मराठा घोड़ा था। सिंध के किनारों से लेकर मदुरै तक, कोंकण से लेकर बंगाल तक मराठा सरदार सभी प्रान्तों से चौथ के रूप में कर वसूल करते थे, स्थान स्थान पर अपने विरुद्ध उठ रहे विद्रोहों को दबाते थे, पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं को जबरदस्ती ईसाई बनाने पर उन्हें यथायोग्य दंड देते थे, अंग्रेज सरकार जो अपने आपको अजेय और विश्व विजेता समझती थी मराठों को समुद्री व्यापार करने के लिए टैक्स लेते थे, अंग्रेज लेखक और उनके मानसिक गुलाम साम्यवादी लेखकों द्वारा एक शताब्दी से भी अधिक के हिंद्यों के इस स्वर्णिम राज को पाठ्य पुस्तकों में न लिखा जाना इतिहास के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या हैं?
हम न भूले की “जो राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव को भुला देता हैं , वह अपनी राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ को खो देता हैं।”

उलटी गंगा बहा दी

वीर शिवाजी का जन्म १६२७ में हुआ था। उनके काल में देश के हर भाग में मुसलमानों का ही राज्य था। १६४२ से शिवाजी ने बीजापुर सल्तनत के किलो पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। कुछ ही वर्षों में उन्होंने मुग़ल किलो को अपनी तलवार का निशाना बनाया। औरंगजेब ने शिवाजी को परास्त करने के लिए अपने बड़े बड़े सरदार भेजे पर सभी नाकामयाब रहे। आखिर में धोखे से शिवाजी को आगरा बुलाकर कैद कर लिया जहाँ पर अपनी चतुराई से शिवाजी बच निकले। औरंगजेब पछताने के सिवाय कुछ न कर सका। शिवाजी ने मराठा हिन्दू राज्य की स्थापना की और अपने आपको छत्रपति से सुशोभित किया। शिवाजी की अकाल मृत्यु से उनका राज्य महाराष्ट्र तक ही फैल सका था। उनके पुत्र शम्भा जी में चाहे कितनी भी कमिया हो पर अपने बलिदान से शम्भा जी ने अपने सभी पाप धो डाले। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात औरंगजेब ने सोचा की मराठो के राज्य को नष्ट कर दे परन्तु मराठों ने वह आदर्श प्रस्तुत किया जिसे हिन्दू जाति को सख्त आवश्यकता थी। उन्होंने किले आदि त्याग कर पहाड़ों और जंगलों की राह ली। संसार में पहली बार मराठों ने छापामार युद्ध को आरंभ किया। जंगलों में से मराठे वीर गति से आते और भयंकर मार काट कर, मुगलों के शिविर को लूट कर वापिस जंगलों में भाग जाते। शराब-शबाब की शौकीन आरामपस्त मुग़ल सेना इस प्रकार के युद्ध के लिए कही से भी तैयार नहीं थी। दक्कन में मराठों से २० वर्षों के युद्ध में औरंगजेब बुढ़ा होकर निराश हो विश्वासपात्र गया, करीब ३ लाख की उसकी सेना काल की ग्रास बन गई। उसके सभी विश्वास पात्र सरदार या तो मर गए अथवा बूढ़े हो गए। पर वह मराठों के छापा मार युद्ध से पार न पा सका। पाठक मराठों की विजय का इसी से अंदाजा लगा सकते हैं की औरंगजेब ने जितनी संगठित फौज शिवाजी के छोटे से असंगठित राज्य को जितने में लगा दी थी उतनी फौज में तो उससे १० गुना बड़े संगठित राज्य को जीता जा सकता था। अंत में औरंगजेब की भी १७०५ में मृत्यु हो गई परन्तु तक तक पंजाब में सिख, राजस्थान में राजपूत, बुंदेलखंड में छत्रसाल, मथुरा,भरतपुर में जाटों आदि ने मुगलिया सल्तनत की ईट से ईट बजा दी थी। मराठों द्वारा औरंगजेब को दक्कन में उलझाने से मुगलिया सल्तनत इतनी कमजोर हो गई की बाद में उसके उतराधिकारियों की आपसी लड़ाई के कारण ताश के पत्तों के समान वह ढह गई। इस उलटी गंगा बहाने का सारा श्रेय वीर शिवाजी को जाता हैं।

डॉ विवेक आर्य

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